छूटते पर्जन्य
वन-वनांतर
डांडे पर लगे झुरमुट
आड़े - तिरछे खजूर के सरल दरख्त
समाधिस्थ - झुटुंग - बोहड़ के
विलुप्त प्राय - प्रसृत - बलस्थ वृक्ष,
मेघो के राज्य में सिरोन्नत किए
विस्मयी - विमुग्धकारी - गिरिशिखर
उटज ; छोटे - छोटे स्टेशन
वित्त - निरापद खेत - खलिहान मध्य ठाड़े,
कुछ अवगणित उजके चुप
संवलाई नदियों के मदमाते - उफनते यौवन पर
आसक्त - मदालस - बूढ़नद ; गुजरते मठ , सूने पुल
रेला - सी चली लजाती - ठठाती कुछ युवतियां कतारबद्ध
अलसाय बैरियर ; परिपाश्व मैं खड़े अधीर नर - मुंड - ठट्ट ,
डगमगाती सर्पिल परि - पथ पर भागती
एक निर्वाच्य - बूढ़ाती-जर्जर - पैसेंजर
आभ्यांतर जिसके जन्गुम्फित - प्रशस्त जनरल कक्ष
जिसके जीवन से भग्नाश खाली पेटों की सालती पीडाओं से विक्षुब्ध
अभावजन्य कुंठाए क्षितिज ताकती तर - पर
हावका
भरते अधेड़ ; आदिम ग्रंथि से ग्रस्त लटकती
उँगलियों में पड़ी ढेर अंगूठियाँ
हांक लगते हाकर्स के कामिक झुंड
कौतुहल से भरे परिचपल बच्चे शांत ॠद्धालु
रूग्ण - लड़ -खड़ाते डोकरे , हारे गाढ़े ठसी परछिद्रान्वेशी नारियां
गप्प मारते परिवापित - शम्श्रुल - तरुण
कुछ सोढर- निघर घट ढोंग धतूर तथा विडम्बक
जीवन प्रभंजन झेलते
हा हा ही ही हु हु खी खी ठी ठी करते
मिश्रित जन समूहों के अंत हीन जमघट ; उधर एक कोने सिमटी
वह नतनयन घट बैठी वर्षाहत हहराती सवत्स
दिव्या रूप के प्रति अचेतन , संघट्टावलेप से जिसका दमकता पुतानन
कान में बिरिया - टूम होंठ छूती बुलाक
कंठ में बिछे सिक्कों का मुक्ताहार बाँहों में बहुट्नी
कलाई में चूडियों का निबंध
ठालिनी - धारित लंक
नग्न पावों में जावक
व अनवट ,
बीच - बीच में उधडे वस्त्र
देह से झरता अनपेक्षित उपेक्षित जोबन
विलोक उस नारी का वह वन्य
वृक्ष लताओं सा आदिम अरण्य रूप ,
आरम्भिक झिझक छोड़ते निर्निमेष ; भूलते
भूत
भविष्यत्
चितन जमती होठों पर फेफ्ड़ी
भरते
फुफ्फसों
में आदिम सुवास ,
छाती उस बोगी के
समस्त पुरषों पर
अचिर उत्तेजना अकस्मात ;
तभी जीने के लिए जन्मा
भूख से कसमसाया वह
नन्हा सद्य जात , देख सुन उसका क्रंदन
जहाँ नहीं कोई अड़तल
ताहम विस्मृत कर
समस्त व्रीडाएँ
खोला उस स्त्री ने देव दुर्लाभय अमृत से
भरा परिवर्तुल स्तन स्तब्ध नक्त पाषाण खंड से जड़
सम्मुख देखते सहज सुलभ्य नारीक दुस्पर्ष अन्चीन्हित
जिज्ञासाएँ
अब भी एकटक किन्तु नहीं थे वे भाव अब
उन आंखों में यथावत
वरन बड़ रही ठी ह्रदय की प्रखर वेदना और
हो रहा था निर्मल जीवन का उदय शनेः शनेः ,
सत्यत: यह कैसा सनातन
मानस
क्या करता इस द्रश्य में अपनी मातृ दर्शन अथवा
तिरता स्मृति पटल पर स्वयं का
चिंता हीन अनदेखा अदभुत शैशव , की तभी
ढँक लिया इस प्रछन्न
मर्म को शिशु के चौंकने
विभू स्वर ने , उधर नारियों ने भी की तत्काल ओट
अलार - सी , टूट चुकी थी
समस्त श्रंखलाएँ
जड़ता की , बाहर बढ रही थी
पूर्वपेक्ष्या गति उत्फुल्ल वर्षा की रिमझिम फुहार की
प्रणव सक्सेना "अमित्रघात"
भाई जितना समझ में आया अच्छा लगा लेकिन यकीन मानिये कि आपका बनाया काव्य-व्यंजन बहुत गरिष्ठ है, पता नहीं भड़ासियों को पचेगा या कब्ज़ियत हो जाएगी :)
ReplyDeleteजय जय भड़ास
बिल्कुल पचेगा नंही तो डाक्टर रूपेश किस लिए हैं
ReplyDeleteप्रणव सक्सेना अमित्रघात
amitraghat.blogspot.com