मटुकनाथ की पाती सुरेश चिपलूणकर के नाम

बीमार नैतिकता बनाम स्वस्थ नैतिकता मेरे ब्लाॅग पर उज्जैन से 'महाजाल' ब्लाॅग वाले सुरेश चिपलूनकर ने 'गुरु-शिष्या- संबंध' नामक लेखमाला पढ़कर (?) टिप्पणी भेजी है-'' मैं आपके जूली ''कृत्य'' से पूर्णतः असहमत हूँ...विस्तार में जाना नहीं चाहता क्योंकि इसमें कई मुद्दे और पक्ष जुड़े हुए हैं, जैसे कि आपकी पत्नी, आपके अन्य शिष्य और ''शिष्याएँ'' भी...। कुल मिलाकर मेरे अनुसार, आपने एक अनैतिक कार्य किया है, भले ही आप अपने ''शिक्षक वाले तर्कों '' से खुद को कितना ही उच्च आदर्शों ( ?) साबित करने की कोशिश करें .''े प्रिय चिपलूनकर साहब आप मेरे जूली 'कृत्य' से सहमत नहीं हैं, तो कोई हर्ज नहीं. मैंने ब्लाॅग पर लेख पढ़ने के लिए आमंत्रण दिया था. क्या आपने पढ़ा ? अगर हाँ, तो उसका प्रमाण आपकी टिप्पणी में कहाँ है ? विस्तार में गये बिना, मुझसे जुड़े मुद्दों और पक्षों पर विचार किये बिना निष्कर्ष निकालने की बेचैनी आपके भीतर है और आखिर बिना विचारे निष्कर्ष तो आपने दे ही दिया. क्या आप इसे नैतिक कृत्य समझते हैं ? हड़बड़ी क्या थी, एक-दो दिन और ठहर जाते, थोड़ा तथ्य इकट्ठा करते, तटस्थ विश्लेषण करते, उसके बाद निष्कर्ष देते ! तब आपके निष्कर्ष में एक वजन आ जाता. यह कैसा निष्कर्ष ? जरा-सा कोई फूँक दे तो उड़ जाय ? अंग्रेजी में एक कहावत है 'टू मच माॅरैलिटी क्रिएट्स इम्माॅरैलिटी'. अति नैतिकता का आग्रह अनैतिकता को जन्म देता है. आपकी एक छोटी-सी टिप्पणी अनैतिकता का जन्म बन गयी है. आपकी इस अनैतिक संतान पर एक नजर- ' कुल मिलाकर मेरे अनुसार, आपने एक अनैतिक कार्य किया है, भले ही आप अपने 'शिक्षक वाले तर्कों' से खुद को कितना ही उच्च आदर्शों ( ?) वाला साबित करने की कोशिश करें. ' इस एक वाक्य में जो अनेक भाषा-दोष हैं, फिलहाल मैं उनकी तरफ से आँख मूँदता हूँ. ( वैसे लिक्खाड़ लोगों से इतनी नैतिकता की माँग स्वाभाविक है कि वे शुद्ध और साफ लिखें) मेरे सामने ऊँचा आदर्श केवल सत्य है और सत्य को साबित करने की जरूरत नहीं पड़ती, उसे केवल देखना पड़ता है. उससे आँखें चार करनी पड़ती हैं. साबित केवल झूठ को करना पड़ता है, क्योंकि उसका कोई अस्तित्व नहीं होता. मैंने जो सत्य अपने आलेख में प्रस्तुत किया, उससे आँखें चार करने के बदले आपने आँखें चुरायीं हैं. साबित उन्हें करना पड़ता है जिसने कुछ छिपाकर रखा है. जिसका जीवन खुली किताब है उसको पढ़ने की पात्रता भी आपने नहीं दिखायी ? मेरा अनुमान है कि आप झूठ को सच और सच को झूठ साबित करने में लगे रहते होंगे, वरना यह ख्याल आपके दिमाग में आया कहाँ से ? जिसे आप अनैतिक कहते हैं, उसी को मैं भी अनैतिक कहता तभी मुझे कुछ और साबित करने की जरूरत पड़ती. असल में, आपकी और मेरी नैतिकता की मान्यताएँ अलग-अलग हैं. आपके कहने का अर्थ संभवतः यह है कि विवाह से हटकर जो मैंने प्रेम किया, वह अनैतिक है. और मैं कहता हूँ कि विवाह नामक संस्था ही अनैतिक है, क्योंकि इसने प्रेम का गला घोंट कर रख दिया है. प्रेम आगे-आगे चले, विवाह उसके पीछे चले तब तो ठीक है. लेकिन विवाह आगे आ जाय और प्रेम को कहे तुम मेरा अनुगमन करो तो यह अस्वाभाविक और अप्राकृतिक है, इसीलिए अनैतिक भी है. जीवन-मूल्य प्रेम है. चाहे जिस विधि से आता हो, श्लाघ्य है. प्रेमरहित विवाह संबंध को ढोना, अपने पर और पत्नी पर जुल्म करना है. प्रेमरहित परिवार भूतो, का घर है. मेरी और आपकी नैतिकता की धारणा एक उदाहरण से स्पष्ट की जा सकती है. कल्पना कीजिए मैं एक सुंदर पार्क में हूँ. मुझसे मिलने के लिए आतुर एक स्त्री आती है. मैं उसे गले से लगा लेता हूँ. मैं उसके प्रेमालिंगन में डूब जाता हूँ. खो ही जाता हूँ. पता नहीं कि मैं हूँ भी या नहीं. इसी बीच आप उस तरफ से गुजर रहे होते हैं. देखते ही आपको जैसे बिच्छू डंक मार देता है. अनाचार हो रहा है ! सार्वजनिक स्थल पर घोर अनैतिक कृत्य हो रहा है ! इसे रोको, समाज भ्रष्ट हो जायेगा, कहाँ है पार्क का गार्ड ? पुलिस बुलाओ. चार-पाँच आप जैसे लोग अगर वहाँ इकट्ठे हो गये तो पुलिस भी बुलाने की जरूरत नहीं. आप स्वयं ही कार्रवाई शुरू कर देंगे. अब इस स्थिति को देखिये कि मैं आनंद में हूँ. अपने अस्तित्व का ज्ञान भूल गया हूँ. और आप पीड़ा में हैं. ईष्र्या की आग आपके नस-नस में लहर गयी है. जो आजतक आपको नहीं मिला, उसे कैसे दूसरा व्यक्ति पा सकता है ? जिस भाव का आपने दमन किया हुआ है, उसे कैसे किसी दूसरे को प्रकट करने दिया जा सकता है ? मैं आनंद में हूँ और आप पीड़ा में पड़ गये हैं. सुख में होना, प्रेम में होना नैतिक है. दुख में होना, ईष्र्या में होना अनैतिक है. एक दूसरा आदमी उसी पार्क से गुजरता है. वह काम-तृप्त है, प्रसन्न है, सहज है. अलबत्ता तो उसका ध्यान ही मेरी तरफ नहीं जायेगा, अगर जायेगा तो आमोद से उसका मन भर जायेगा. वाह, प्रकृति का कैसा मनोरम दृश्य देखने को मिला ! वह विधाता को इस सुंदर दृश्य को देखने का मौका देने के लिए धन्यवाद देगा और आगे बढ़ जायेगा. वह इतना ख्याल जरूर रखेगा कि उनकी उपस्थिति की भनक मुझ प्रेमी जोड़े को न लगे. वह अपनी उपस्थिति से मेरी प्रेम-समाधि तोड़ना न चाहेगा. मुदित होकर एक मुस्कुराहट के साथ वह वहाँ से निकल जायेगा. उसके चित्त पर उस दृश्य की छाया भी न होगी. यह दूसरा व्यक्ति स्वस्थ है. आप बीमार हैं. आपको इलाज की जरूरत है. देखते हैं, कोई पागल कैसे किसी राहगीर को अकारण मारने दौड़ता है. आपकी स्थिति उससे ज्यादा बेहतर नहीं. उसका दिमाग थोड़ा ज्यादा घसक गया है. एक-दो कदम और आगे बढ़ने पर आप भी उस स्थिति में जा सकते हैं. आप अपने शब्दों पर जरा गौर कीजिए- 'जूली-कृत्य'. क्योंकि जिंदगी आपके लिए एक कृत्य है, एक काम है. जीवन अगर एक काम हो तो उसे ढोना पड़ता है, निपटाना पड़ता है, उसे कर्तव्य मानकर निभाना पड़ता है. नहीं निभा पाये तो तनाव होता है, मन अशांत होता है. आप मुझसे बहुत दूर हैं. मुझसे अगर आपका संपर्क हुआ होता तो आप देखते कि जीवन एक उत्सव है. मेरे लिए जीवन महोत्सव है, कृत्य नहीं. तब आप इस 'कृत्य' शब्द को बदलकर लिखते- जूली-प्रेम, जूली-उत्सव. आपने टिप्पणी तेा मेरे बारे में की है, लेकिन ये शब्द आपकी ही जीवन-शैली और 'कृत्य' की खबर दे रहे हंैे. मैं तो आपका आईना भर हूँ. आपने मुझमें अपनी ही छवि देखी हंै. मेरा जीवन आपके लिए अज्ञात है.

लो क सं घ र्ष !: हवाला, आतंकवाद और नरेश जैन

राजनीतज्ञ, पुलिस, अपराधी और अफसर के गिरोह भी आतंकवाद को प्रशय देते हैयह बात 5000 करोड़ हवाला के मुख्य अभियुक्त नरेश जैन की गिरफ्तारी के बाद उजागर हुआ है नरेश जैन अंडरवर्ल्ड आतंकवादियो को एक तरफ़ हवाला के माध्यम से धन मुहैया करता था वहीं आतंकवादियों को एजेंट्स को भी धन मुहैया कराने का कार्य कर रहा थाइस कांड को पूर्व 1990 में एस.के जैन की गिरफ्तारी के बाद यह पता चला था की हवाला के माध्यम से हिजबुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों को धन देता था वहीं शरद यादव से लेकर लाल कृष्ण अडवाणी तक को राजनीति करने के लिए धन उपलब्ध कराता थानरेश जैन के इस प्रकरण को प्रिंट मीडिया ने एक दिन ही प्रकाशित किया और उसके बाद प्रिंट मीडिया खामोश हो गया
हवाला के माध्यम से नरेश जैन और राजनेताओं को आतंकवादियो को तथा ड्रग माफिया को वित्तीय मदद देता था जब बड़े - बड़े राजनेता हवाला के माध्यम से आई हुई रकम लेंगे तो किसी भी इस तरह के बड़े अपराधी के ख़िलाफ़ कोई भी कार्यवाही सम्भव नही हैपरवर्तन निदेशालय ने नरेश जैन को विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून (फेमा) के तहत गिरफ्तार किया है लेकिन इन बड़े अपराधियों और आतंकवादियो की मदद करने वालों के लिए कोई सक्षम कानून नही बनाया गया है और कुछ दिन चर्चा होने के बाद मामले को ठंङे बसते में डाल दिया जाता है और पैरवी के अभाव में अपराधी छूट जाता है

यहाँ एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि इस तरह का अभियुक्त मुस्लिम अल्पसंख्यक होता तो हिन्दुवत्व के पैरोकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक चीख चीख कर चिल्लाते और उसे धर्म विशेष से जोड़ कर उस धर्म को भी अपमानित करने का कार्य करतेलेकिन आज वो खामोश क्यों है ? इस समय उनको देश की चिंता भी नही है और आतंकवाद की है

सुमन
loksangharsha.blogspot.com

अरुणा-जय प्रकाश काण्ड पर डाक्टर वर्मा की प्रतिक्रया !

जो भी अरुणा का एक रूप उभर कर आया है कि अभी जु्म्मा जुम्मा दस बीस कविता नहीं लिखा है और ऊपर से इतना गुरूर । फिर मूल कमेन्ट्स तो कविता पर है ही नहीं । एक परिचित मित्र का परिचित मित्र यानी एक समूह के दूसरे को एक टिप्पणी भी है । इसे सहज में भी लिया जा सकता था । जो मनुष्य की प्रकृति से संबंधित है । न कि कविता पर । फिर मैंने यह भी पढ़ा है टिप्पणीबाजों की टिप्पणियों में कि वे अर्थात् जयप्रकाश मानस तो उन्हें अपनी चर्चित पत्रिका में भी छाप चुके हैं फिर वे कह भी नहीं रहे हैं कि उन्हें अरुणा देवी की कविता पसंद ही नहीं है । वे तो उन्हें बाकायादा छाप चुके हैं । फिर कहाँ पुरुष द्वारा महिला लेखक को नापंसद करने का सवाल ।


रहा सवाल इसका तो किसी भी कवि की हर कविता ऐसी नहीं होती कि उसकी भी तारीफ़ की जाये । अरुणा या किसी भी कवि की कविता कितनी अच्छी है इसका निर्णय पाठक ही नहीं सुधी संपादक और आलोचक भी करते हैं । और सारे टिप्पणी बाज आलोचक नहीं है । कवि नहीं है । संपादक नहीं है ।


अनिल जनविजय कवि होकर भी मूर्ख टिप्पणी करते हैं यह ताज्जूब है कि दूसरे कवि को नालायक कहते हैं । यानी कहीं यह मानस के खिलाफ़ आग उगलने का छद्म प्रयास तो नहीं है कि किसी महिला या पुरुष के पक्ष में जाने के प्रश्न पर महिला के साथ जायें । क्योंकि दोनों हिन्दी के अच्छे कवि हैं । दोनों का काम साहित्य का है ।

मुझे तो यह भी लगता है कि कहीं ये मानस और अरुणा जानबूझकर तो ऐसा किसी रणनीति के तहत न कर रहे हों । क्योंकि दोनों पुलिसवाले हैं । सुना है मैंने । और हम लोगों को यहाँ व्यर्थ चर्चा हेतु घेर रखे हैं । यह भी पता लगाना चाहिए । और इस मुद्दे को यहीं विराम देना चाहिए ।


क्योंकि मानस का कहना भी सही है । और अन्य पुरुषों का कहना भी ठीक है । हर किसी की दृष्टि होती है चीजों को देखने की । हम व्यर्थ अपने विचार, दृष्टिकोण को लादे फिरते रहते हैं । अपडूडेट और उदार होना भी समयोचित है । जो दूसरों को नहीं स्वीकार पाता वह फासिस्ट हो जाता है । सिर्फ विरोध करना ही गैर फासिस्ट होना नहीं होता । बाकी बाद में । अब बंद करें यह सब नाटक ।


पुलिस पुलिस तो नहीं । चोर चोर मौसेरे भाई । भाई नही तो भाई बहन ।



डॉ. बलदेव वर्मा

नागपुर, महाराष्ट्र


अरुणा राय, एक महत्वाकांक्षा. हकीकत नही चर्चा हो.

कल का दिन मानसिक और वैचारिक ऊहापोह भड़ा रहा कारण फेसबुक पर एक चर्चा जिसे सामूहिक रूप से मान्यता देने की कोशिश सभी तथाकथित बुद्धिजीवी ने की। हम ठहरे भड़ासी सो बस सच्चाई और सामजिक सरोकार के अलावे कुछ सूझता ही नही सो अपनी भड़ास उगल आए मगर फस्बूक पर भी क्षद्म लोगों की जमात ने अपनी क्षद्मता जारी रखी।

एक ब्लोगर, हिन्दी लेखिका, और स्वयम्भू कवियत्री होने के साथ साथ उत्तर प्रदेश पुलिस में पदाधिकारी ( जैसा की प्रोफाइल में लिखा है ) हैं सुश्री अरुणा राय। विवाद को तेज हवा इन्होने ही दी सो इनसे ही शुरुआत करता हूँ।

इनके प्रोफाइल से विवाद की शुरुआत हुई तो लिखने से पहले सोचा की कुछ तलाश कर लिया जाय, फेसबुक पर तलाश करने पर इनके कई प्रोफाइल मिले जो अपने आप में स्वयम्भू लेकिका को संदिग्ध बना देता है। आप नीचे तस्वीरों में देख सकते हैं।


एक लेखिका कई प्रोफाइल कुछ तो गड़बड़ है

तलाश के दौरान इनको तलाशते हुए चिट्ठाजगत जगत पर भी मुंह मार आया जहाँ इनके ब्लॉग की सूचि मिली, ब्लॉग को तलाशते हुए जब इनके ब्लॉग पर जाने लगा तो......


चिट्ठाजगत पर ब्लॉग उपस्थित.....

इनका ब्लॉग ब्लोगर से नदारद मिला, कुछ समझ में नही आया की ये क्या चक्कर है। खैर तलाश मेरी जारी थी की फस्बूक पर कुछ मित्रों से बातचीत के दौरान (बताता चलूँ की महिला मित्र ) ने बताया की अरुणा जी के प्रोफाइल पर कुछ विवाद है सो मैं जा के टिप्पणी कर आऊं, मैंने जवाब में उन्हें पुरी बात बताई तो बड़ा चौंकने और चौंकाने वाला जवाब मिला। मित्रों ने बताया की उनको अरुणा जी की तरफ़ से मेल आया था की उनको सपोर्ट करें!




मगर ब्लोगर तो माना कर रहा है, क्या गड़बड़ है.........

उलझन
और बढ़ गयी.....


भाई जय प्रकाश मानस की एक सच्चाई जिसके विरोध में लोगों का हुजूम, सच्चाई हजम कहाँ होती है


और तह तक गया तो जो पता चल उसका सार सिर्फ़ इतना कि.........

समीर लाल जी कि प्रतिक्रया, समीर जी कई ब्लॉग आपको ऐसे दिखा सकता हूँ जिसमें सामाजिक अहम् मुद्दे हैं मगर उस मुद्दे पर बोलने वालों का अकाल

उत्तर प्रदेश पुलिस में कार्यरत अरुणा राय पत्रकारों और नेताओं की तरह छपास रोग से ग्रसित हैं, अंतरजाल के बहाने चर्चा में रहना और स्व प्रसंसा सुनने से आनंदित होती हैं, सामाजिक सरोकार से इन्हें कोई सरोकार नही मगर अपने प्रोफाइल में समाज सेवा का स्वांग भी रचती हैं, और जब सामाजिक विषय को इनके सामने रखा जता है तो ये बड़ी सफाई से उस विषय की ही सफाई कर जाती हैं।

सबसे चौंकाने वाली बात तो तब आयी जब चिट्ठाजगत वाले समीर लाल भी बाकायदा अपने ब्लॉग के साथ हाजिर हो गए, विषय को विषयांतर किया और अपने ब्लॉग के टिप्पणियों की बात कह मुद्दे को घुमाने का भरसक प्रयास किया।

बताता चलूँ की एक महिला ब्लोगर के दंभ पर मुझे एक पोस्ट डालना था कुछ महिलाओं से ही सलाह मशविरा किया तो सभी का एक स्वर में कहना था कि "मत लिखो महिला है, लोग तुम्हारे पीछे पड़ जायेगे" फ़िर भी मेरा मन न डोला और इस बार के मुद्दे ने तो मजबूती दी है कि आने वाले दिनों में तमाम क्षद्म लोगों कि हकीकत को बयां कर जाऊं।

भड़ास का भड़ास भड़ास जारी रहेगा।

जय जय भड़ास

लो क सं घ र्ष !: अवध के किसान नेता की गिरफ्तारी पर


"गाँधी जी ने तुंरत माइक संभाल लिया आप लोग शांत रहिये बाबा रामचंद्र की गिरफ्तारी हुई है , जो एक पवित्र घटना है आप उन्हें छुडाने की मांग करें, इस मसले को लेकर जेल जाएँ इससे उन्हें दुःख होगा हमारा रास्ता शान्ति अहिंसा का है, उन्हें छुडाने का बेहतर तरीका यही है कि हम शांतिपूर्वक असहयोग करें "

"कमलाकांत त्रिपाठी के 'बेदखल'से "

माँ

माँ

जाड़े की रात्री मैं ठिठुरती - कांपती
सूखे पत्र - सी हिलती , उकडूं बैठ
निहारती छप्पर को , कहाँ से आती ये हवा सोचती ;
पर न दिखा सामने पटविहीन पट
जहाँ से प्रवेश करती बेधड़क , निर्लज्ज हवा
विशाल अट्टालिकाओं के प्रशस्त उष्ण
प्रकोष्ठों से पिटी दिखा रही दादागिरी
मेरी माँ की पीठ खुली मगर कान तक ढकी साड़ी ,
बेलबूट की जगह
,छपे असंख्य छिद्र जिसमे अंत तक
दुर्बल काय मेरी माँ
पर प्रसारित - प्रशस्त बाहुपाश उसके ,
प्रगाढ़उष्णता से भरी करती स्वागत नित्य
लौटा जब मैं विकल ; समीप राखी शाँल
उड़ा
मुझे प्यार से कांपती उठती वह सुघड़
परोसती खाना मुझे एक रोटी व कुछ दाने दाल के ;
फिरती हाथ पुचकारती कहती "ले
बेटा बची आज एक ही रोटी खा गई में
निठल्ली पूरी पाँच बेठी बेठी "
अन्तिम निगल ग्रास शोण का माँ के हित
तनिक भी तो न कर सका ;लाख योनियोपरांत
देह मिली तो क्या जीवन बीते अभावों में
प्रारब्ध के विराम तक
धिक्कार है मुझ पर इन बाहुओं के बल पर
देख माँ को कोने मैं जो लेटी थी जो बरफ की शिला
सी ठंडी धरा पर ,
साड़ी को कफ़न सा लपेट
करवटें बदलती ; ओह ! माँ तू मर क्यों नहीं जाती ?
क्यों भुगत रही पीड़ा ,
किस प्रत्याशा से दांव लगाय बैठी मुझ निरुत्साही
पर ; सहसा चोंक पड़ा मैं इस निज कुत्सित विचार से
अंतरात्मा ने भी धिक्कारा , सोच माँ की

अविधमानता छलक उठे नयनों से अश्रु
समस्त देह के अवयव थर - थर काँप उठे
इस निज कुत्सित विचार से
आया मैं बाहर उठे बोझिल कदम
ध्वांत मैं विलोक फलक पर टिमटिमा
रहा तारा वही एक मात्र कर रहा था जो अकेला ही तम् परिहार ,
मानो कह रहा हो मुझसे
माँ के विश्वास पर धर विश्वास तू होगा
प्रत्यस्त गमन इस अन्धकार का का एक दिवस
आएगा हँसता हुआ नव विभात ,खिलखिलाती रश्मियों का होगा
सतत् पर्यास " हाँ ठीक ही समझा
मैं इस दूरागत विचार को माँ के
ललाट को चूम कर उड़ा उसे शाँल
जुट गया मैं सुखद भविष्य की कल्पना को
साकार करने |
प्रणव सक्सेना "अमित्रघात"
amitraghat.blogspot.com

लम्बोदर


गिरती महीन जलराशि - मध्य
उस लम्बमान ताल उपात से सटे
संकुल वृक्षों की लसस डालियों
के पत्र्पुन्ज से आवृत स्थल पर
कार स्कूटर ट्रक ट्रालियों मैं
विराजित - विसर्जन के लिए
बाट जोहते लम्बोदर असंख्य - जनों के संग
अकस्मात
चीरकर
वह पगलाई स्त्री
ताल की अथाह गहराई मे चलते चलते
डूब गई उसके कांधे पर उसका
लम्बोदर था जो
भूख से तड़पकर
उसी दिन अंकोर मे सर रख कर
मरा था
प्रणव सक्सेना "अमित्रघात"

मटुक साहब के नाम पाती

मटुक साहब ,
स्वान्तः सुखाय में आप जीने के आदी है लेकिन जैसे ही कोई भी चीज ब्लॉग पर प्रकाशित करते है और उसमें कमेन्ट आमंत्रित करते है वैसे ही वह विचार सार्वजनिक हो जातें है और कौन सी बात किस सन्दर्भ में लिखी गई है अगर उसका सन्दर्भ सही ग्रहण नहीं किया गया है तो अर्थ का अनर्थ होता हैहिंदू दर्शन और हिन्दुवत्व में जमीन आसमान का अन्तर हैहिन्दुवत्व एक निश्चित परिभाषित राजनैतिक विचारधारा है जो देश की एकता और अखंडता को नष्ट करना चाहती है यह विचारधारा जर्मन के नाजी विचारधारा से ओत -प्रोत हैहिंदू दर्शन परिभाषित नहीं हैहर व्यक्ति अपने अपने तर्कों से हिंदू दर्शन को परिभाषित करता है वह परिभाषा उस व्यक्ति की अपनी होती है मत और मतान्तर जीवन के आवश्यक अंग है जिन पर हमेशा चिंतन और मनन होता रहता है हम भी चाहते है की भारत एक बहुधर्मी, बहुराष्ट्रीयता, बहुजातीय , बहुभाषीय , धर्मनिरपेक्ष देश है किंतु कुछ लोग जो इस देश के संविधान को नहीं मानते है वो हिंदू राष्ट्र इस्लामिक राष्ट्र बनाने का स्वप्न देखते है ऐसे स्वप्न देखने वाले लोग वास्तव में देश द्रोही है कुछ लोग इतिहास के आधार पर देश में घृणा फैलाकर इस देश की एकता और अखंडता को नष्ट करना चाहते हैइसके लिए वह लोग हिन्दुवत्व की राजनैतिक विचारधारा का इस्तेमाल करते हैकोई भी जीवन शैली आप जीयें या हम जीयें इसका कोई मतलब नहीं हैमतलब तब होता है जब हस्तक्षेप होने लगता है । स्वान्तः सुखाय की अवधारणा से यह तात्पर्य नहीं है की कोई आत्महत्या कर लेगा और यह कहकर की यह शरीर उसका है । शरीर किसी का नहीं है क्योंकि शरीर स्वयं द्वारा इच्छा करके उत्पन्न नहीं किया जा सकता है॥

नमस्ते


सुमन
loksangharsha.blogspot.com

लो क सं घ र्ष !: चिर मौन हो गई भाषा...


द्वयता से क्षिति का रज कण ,
अभिशप्त ग्रहण दिनकर सा
कोरे षृष्टों पर कालिख ,
ज्यों अंकित कलंक हिमकर सा

सम्पूर्ण शून्य को विषमय,
करता है अहम् मनुज का
दर्शन सतरंगी कुण्ठित,
निष्पादन भाव दनुज का


सरिता आँचल में झरने,
अम्बुधि संगम लघु आशा
जीवन, जीवन- घन संचित,
चिर मौन हो गई भाषा

-डॉक्टर यशवीर सिंह चंदेल 'राही'

e-mail

Raj singh नामक एक व्यक्ति आपसे संपर्क करना चाह रहा है .
स्नेह सहित
आपकी बहन

डॉ. रुपेश की टिप्पणी पर मटुक का जवाब

मेरे ब्लाॅग पर 'हिन्दू दर्शन संकीर्ण नहीं' शीर्षक लेख पढ़ने के बाद मुंबई से आयुर्वेदिक चिकित्सक डॅा. रूपेश श्रीवास्तव ने टिप्पणी की है- 'मटुक बाबू आपके द्वारा भेजे मेल से आपके ब्लाग का पता मिला। आपने जो लिखा वह कुछ वैसा ही है कि जिसे अण्डे खाने हैं वह उसके पक्ष में तर्क और तथ्य जुटा लेता है कि प्रोटीन है वगैरह जिसे नहीं खाना है वह कहता है कि फाइबरस फूड है दिल के दौरे का कारण हो सकता है। सब अपने चश्में से दुनिया देखते हैं। आप करो भाई जो आपको करना है किसी को सहमत नहीं कर सकते हां बस तर्क से निरुत्तर जरूर कर सकते हैं। हम अगर सुअर हैं तो मानव मल हमारे भोजन है अब ऐसे में हम अगर मनुष्यों से शास्त्रार्थ करें तो क्या परिणाम निकलने वाला है। उल्लू चमगादड़ जैसे प्राणी अगर शिक्षक हों इंजीनियर हों साइंसदान हों और वे मनुष्यों से जिरह करें कि तुम सबकी जीवन की सोच एक नामालूम अस्तित्व सूर्य पर केन्द्रित है तो मनुष्य क्या कहेगा कि भाई तुम्हें दिखेगा नहीं क्योंकि तुम उल्लू हो। आप करो जो आपको करना है क्योंकि हम जो मानते हैं वही सत्य होता है जो मानते ही नहीं वह कैसे सत्य हो सकता है। आपकी पूर्व पत्नी और परिवार के प्रति मुझे कोई सहानुभूति होनी चाहिये क्या ये आपसे जानना है... अवश्य बताएं। मैं सोचता हूं कि आप समलैंगिक संबंधों पर भी कलम चलाएं आपके स्पष्ट विचार जान कर अच्छा लगेगाए वो भी प्रेम-व्रेम जैसा ही कुछ बताया जाता है।'' भड़ास! आदरणीय डाॅक्टर साहब मेरे लेखन का उद्देश्य किसी की सहमति पाना नहीं है. सहमति लेकर मैं करूँगा क्या ? और असहमति से मेरा बिगड़ेगा क्या ? मैं जो कुछ भी करता हूँ, अपने बुद्धि-विवेक से. अपने द्वारा किये गये कर्म का नियंता मैं हूँ, भोक्ता मैं हूँ. अगर मैं दूसरों की देखादेखी करता तो स्वभावतः मेरे बहुत समर्थक होते, लेकिन मेरा आनंद खो जाता. अगर मैं भूलवश कुछ गलत कर गुजरता तो शायद उसे सही साबित करने का प्रयास इसलिए करता ताकि लोगों का समर्थन मिले और मैं जिंदा रह सकूँ. जो दूसरों के अनुसार चलता है, उसे ही दूसरों के समर्थन और प्रशंसा की जरूरत पड़ती है. मैंने कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं की. अपने स्वाराज्य में रहता हूँ. आनंद से विचरता हूँ. अपनी तरफ से 'ना काहू सों दोस्ती ना काहू सौं बैर'. मनुष्य जाति एक बड़े भ्रम का शिकार रही है कि कोई उसकी सहायता कर सकता है, कोई उसको नुकसान पहुँचा सकता है. मैंने अपने एकांत के उस कोने में ठहर कर देखा है, जहाँ कोई सहायता नहीं पहुँचा सकता, जहाँ कोई नुकसान भी नहीं पहुँचा सकता. इसलिए इसके लिए कोई प्रयास भी मैं नहीं करता. यह बात जरूर है कि एक प्राकृतिक व्यवस्था के तहत सहायताएँ स्वयमेव आती हैं, नुकसान भी स्वयमेव होता है. मैं दोनों के बीच समभाव रखते हुए अपने को संतुलित रखने का प्रयास करता हूँ. 'प्रयास' शब्द भी बहुत सही नहीं है. कहना चाहिए संतुलन भी अपने आप जाता है. मेरा उद्देश्य है विचार-विमर्श के द्वारा सत्य के करीब पहुँचना. सत्य की छाया बनना. एक ऐसे विचार को पैदा करना जो अपने चश्मे का भी रंग देख सके और दूसरों के चश्मे को भी पहचान सके. पूर्वग्रहरहित तथ्यपरक वाद-विवाद अगर हो तो शायद कोई संवाद बन सके. एक ऐसे ही संवाद की तलाश है. सत्य सत्य है. वह हमारे मानने, मानने पर निर्भर नहीं हैै. मैं जब किसी के विचारों की शव-परीक्षा करता हूँ, तो इसलिए कि उसके माध्यम से सचाई सामने आये. तथ्य और सत्य को देखनेवाले अंधे नैतिकतावादियों को निरुत्तर करने में मुझे आनंद जरूर आता है. उनको देखते ही मेरा क्षात्र-धर्म दीप्त हो उठता है. लगता है, भीतर किसी ने पंाचजन्य फूँक दिया. विचारों के आक्रमण -प्रत्याक्रमण , उनके दाँव-पेंच को देख मैं उसी तरह आनंदित होता हूँ जैसे युद्ध के मैदान में तलवार भाँजता हुआ कोई सच्चा सूरमा. आप लिखते हैं -'' आपकी पूर्व पत्नी और परिवार के प्रति मुझे कोई सहानुभूति होनी चाहिए क्या ये आपसे जानना है ? '' बिल्कुल मुझसे नहीं जानना है. लेकिन इतना जरूर जानना है कि आपकी सहानुभूति का आधार क्या है ? आपकी आँखों के द्वारा निकट से सम्यक् रूप से देखी गयी मेरी वास्तविक पत्नी या मीडिया में प्रकट हुई मेरी कलाकार पत्नी या इस तरह के मिलते-जुलते मामले में देखी गयी दूसरों की पत्नियाँ ? अगर हर मामले की विशिष्टता की पहचान आपके पास नहीं है तो आपकी सहानुभूति, आपकी धारणायें सब हवा-हवाई हैं. सामान्यीकरण सत्यान्वेषण के लिए विकट दीवार है. जब एक भी मनुष्य एक-दूसरे के समान नहीं है, तो यह सामान्यीकरण आयेगा कहाँ से ? आदमी का दुर्भाग्य है कि किसी दूसरे को देखकर किसी दूसरे के बारे में निर्णय ले लेता है. मनुष्य की कुछ विशिष्टता ही उसे पशु से अलग करती है. हर व्यक्ति की विशिष्टता ही उसे दूसरों से अलग करती है. लेकिन आप एक दृष्टि से सही हैं, क्योंकि मनुष्य की विशिष्टता को प्रकट करने वाली शिक्षा कहाँ है ? एक ही फर्मे में सबको ढालने वाली शिक्षा ने मनुष्य को निर्जीव जैसा बना दिया. निर्जीवों में बड़ी समानता होती है. फैक्ट्री में ढाली गयी कारें एक समान होती हैं. श्मशान घाट में लाये गये मुर्दे समान होते हैं. जीवंत आदमी एक समान नहीं हो सकता. मैं अपनी बात और स्पष्ट करने के लिए अपने जीवन की एक घटना सुनाता हूँ. मैंने इंटरमीडिएट में पटना काॅलेज, पटना में नाम लिखाया. मैट्रिक अपने गाँव से किया. मैंने देखा कि मेरे वर्ग में एक लड़का है जो अंधा है. मैं करुणामिश्रित आश्चर्य में डूब गया, क्योंकि अब तक मैंने ट्रेन में, गाँव-घर में, मेले-मंदिर में भीख माँगते असहाय अंधों को ही देखा था. दया मुझे बहुत आयी थी. संस्कारवश मैंने उस नयनविहीन सहपाठी पर सहानुभूति उड़ेल दी. उन्होंने मुझे सावधान किया - 'मुझ पर सहानुभूति जताने की जरूरत नहीं. कोई भी आँखवाला मुझसे बेहतर नहंीं है. मैं किसी से कम नहीं हूँ.' मेरी पत्नी और मेरे परिवार के प्रति सहानुभूति जताने के लिए मुझसे पूछने की जरूरत नहीं, लेकिन कम से कम मेरी पत्नी से तो पूछ लेते ! उन्हें आपकी सहानुभूति की जरूरत है या नहीं ? कोई भी स्वाभिमानी आदमी क्यों किसी की सहानुभूति चाहेगा ? सच्ची सहानुभूति वह है जो क्रियारूप धारण करे. मेरी पत्नी और परिवार के प्रति आप जैसे लाखों लोग सहानुभूति रखते हैं. लेकिन केवल मन में. किसी ने मेरे परिवार से हाल-चाल तक नहंीं पूछा. ऐसी सहानुभूति किसी के पास हो, किसी के पास हो, उससे क्या फर्क पड़ता है ? एक और गुप्त बाद बता दूँ. मनुष्य बहुत जटिल प्राणी है. वह किसी भाव का नाम बदलकर उपयोग कहीं कर लेता है. मैं आपको नहीं घेर रहा हूँ. लेकिन ऐसे कई लोगों को मैंने देखा है जो मेरे प्रति उत्पन्न हुई ईष्र्या को पत्नी के प्रति सहानुभूति में बदलकर अपनी आक्रामकता को सही सिद्ध करना चाहते हैं. आपकी सहानुभूति कहीं अपने आपको अत्यधिक मानवीय दिखलाने की सुषुप्त लालसा तो नहीं है ? झाँक कर देखियेगा. यह काम आप ही कर सकते हैं. इतना जरूर कह देना चाहता हूँ कि जो भी विचार मैंने व्यक्त किया, जरूरी नहीं कि वह ठीक हो. सत्य इससे परे भी हो सकता है. सत्य का जो पहलू आपको दिखता है, उसे आप रखने की कृपा करेंगे. आपकी इच्छा है कि मैं समलैंगिक संबंधों पर भी कलम चलाऊँ. कुछ दिनों बाद आपकी फरमाइश पूरी करने का प्रयास करूँगा. मटुक