मटुक साहब के नाम पाती

मटुक साहब ,
स्वान्तः सुखाय में आप जीने के आदी है लेकिन जैसे ही कोई भी चीज ब्लॉग पर प्रकाशित करते है और उसमें कमेन्ट आमंत्रित करते है वैसे ही वह विचार सार्वजनिक हो जातें है और कौन सी बात किस सन्दर्भ में लिखी गई है अगर उसका सन्दर्भ सही ग्रहण नहीं किया गया है तो अर्थ का अनर्थ होता हैहिंदू दर्शन और हिन्दुवत्व में जमीन आसमान का अन्तर हैहिन्दुवत्व एक निश्चित परिभाषित राजनैतिक विचारधारा है जो देश की एकता और अखंडता को नष्ट करना चाहती है यह विचारधारा जर्मन के नाजी विचारधारा से ओत -प्रोत हैहिंदू दर्शन परिभाषित नहीं हैहर व्यक्ति अपने अपने तर्कों से हिंदू दर्शन को परिभाषित करता है वह परिभाषा उस व्यक्ति की अपनी होती है मत और मतान्तर जीवन के आवश्यक अंग है जिन पर हमेशा चिंतन और मनन होता रहता है हम भी चाहते है की भारत एक बहुधर्मी, बहुराष्ट्रीयता, बहुजातीय , बहुभाषीय , धर्मनिरपेक्ष देश है किंतु कुछ लोग जो इस देश के संविधान को नहीं मानते है वो हिंदू राष्ट्र इस्लामिक राष्ट्र बनाने का स्वप्न देखते है ऐसे स्वप्न देखने वाले लोग वास्तव में देश द्रोही है कुछ लोग इतिहास के आधार पर देश में घृणा फैलाकर इस देश की एकता और अखंडता को नष्ट करना चाहते हैइसके लिए वह लोग हिन्दुवत्व की राजनैतिक विचारधारा का इस्तेमाल करते हैकोई भी जीवन शैली आप जीयें या हम जीयें इसका कोई मतलब नहीं हैमतलब तब होता है जब हस्तक्षेप होने लगता है । स्वान्तः सुखाय की अवधारणा से यह तात्पर्य नहीं है की कोई आत्महत्या कर लेगा और यह कहकर की यह शरीर उसका है । शरीर किसी का नहीं है क्योंकि शरीर स्वयं द्वारा इच्छा करके उत्पन्न नहीं किया जा सकता है॥

नमस्ते


सुमन
loksangharsha.blogspot.com

6 comments:

  1. प्रिय सुमनजी
    आपकी पाती ने मुझे प्रसन्नता प्रदान की. मैं आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ. सिर्फ एक जगह अपना विचार रखना चाहता हूँ, वह यह कि अगर कोई इस शरीर को न रखना चाहे तो उसे रखने की जिद करने वाला दूसरा कौन होता है ? मेरा विचार है कि कानून में आत्महत्या का अधिकार मिलना चाहिए. अगर मेरा जीवन बोझ हो गया हो और जबर्दस्ती कोई दूसरा उसे ढुलवाये, तो यह व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है.
    matuk

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  2. मटुक भाई मैं तो कहती हूं कि आत्महत्या ही क्यों बल्कि हत्या का भी अधिकार दिलवा दीजिये क्योंकि यदि किसी दूसरे के कारण जीवन बोझ लगने लगा हो तो कम से कम उसे मार कर हल्के हो कर जी तो सकें। इस विचार में स्वतंत्रता का थोड़ा आगे विस्तार है बस कानून की मोहर लग जाए तो सब जायज़ हो जाता है। जज भी हत्या करते हैं किसी अपराधी के किसी कार्य जो कि कानूनन दोष माना जाता है उसके एवज में, है न?? वो करें तो कानून और हम करना चाहें तो अपराध... ये तो आनंद में कचरा डालना हुआ। आपको भड़ास पर देख कर सचमुच मजा आ गया। साधुवाद सहित स्वागत
    जय जय भड़ास

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  3. sriman matuk juli ji,
    na jeene ki tamanna hai na marne ka irada hai .aapka hi sirf aap k shareer k upar adhikaar nahi hai .Barabanki mein baithkar ab mera bhi adhikaar aapk upar ho gaya hai isiliye kisi ko bhi aatmhatya ka adhikaar nahi hai aur mere adhikaaro ko aap ko ya kisi ko samapt karne ka adhikaar nahi hai .AAp se pooch kar aap ko utpann nahi kiya gaya hai . aaj tak aap k pass jo bhi kuch hai usmein yugo-yugo tak logo ne apni shram shakti se nirmit kiya hai vyaktigat kuch nahi hai .

    sadar

    suman
    loksangharsha

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  4. प्रिय सुमनजी
    प्रणाम. आपके विचार प्रेरक हैं. इसका उत्तर एक लेख में ही संभव है, जो मैं जल्द लिखूँगा.

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  5. सुल्ताना बहन
    निरीह और असहाय को अधिकार दिलाया जाता है. शक्तिशाली लोग अधिकार स्वयं ले लेते हैं. हत्या करने वाले लोग बलशाली होते हैं. उन्हें अधिकार दिलाने की तो बात ही बेमानी है.
    जज के द्वारा मृत्युदंड देना एक व्यवस्था का अंग है. कोई भी व्यवस्था बनेगी तो उसमें न्यायाधीश होंगे और जब तक दुनिया में आतातायी हैं, तब तक दंड का प्रावधान भी रहेगा.
    मेरा मामला तो आत्महत्या के अधिकार से जुड़ा है. इस पर और भी टिप्पणियाँ आयी हैं. इसलिए बहन, मैं इस पर एक-दो दिन में थोड़े विस्तार से लिखूँगा.

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