'छोड़ दो समर जब तक न सिध्दि हो रघुनन्दन'-ये पंक्तियाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की मशहूर कालजयी कविता 'राम की शक्तिपूजा' की हैं। कृतिवास रामायण की रामकथा से प्रेरित यह कविता तत्कालीन उपनिवेशवादी पूँजीवाद की अन्यायपूर्ण शक्तिमत्ता के संदर्भ को धरण करने वाली है। उपनिवेशवादी सत्ता-प्रतिष्ठान इस कदर शक्तिशाली था कि आजादी के संघर्ष की जीत होना कई बार असंभव लगने लगता है। 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' कहते हुए 'शक्तिपूजा' के राम की ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं। वे ऐसे युध्द को चलाने में अपनी असमर्थता जाहिर करते हैं जिसमें हार पर हार होती जाती है। हालांकि रावण की पराजय के बाद राज्य पाने का अभिलाषी विभीषण्ा राम को युध्द के लिए उत्तेजित करने की भरपूर कोशिश करता है। उन्हें उनका किया वादा याद दिलाता है और रावण द्वारा सीता को दुख पहुँचाने की बात कर राम के मर्म पर चोट करता है, लेकिन राम पर विभीषण का असर नहीं होता। वे सविनय कहते हैं-'मित्रवर विजय होगी न समर'। निराला के राम के लिए जीत का अर्थ सीता को मुक्त कराके विभीषण को राज दे देना भर नहीं है। वे शक्ति के उस खेल को बदलना चाहते हैं जो अधर्मरत रावण को अपनी गोद में लिए हुए तबाही मचा रही है।
राम की इस मौलिक चिंता को जामवंत समझते हैं और उन्हें शक्ति की मौलिक कल्पना और आराधना करने का परामर्श देते हैं, और जब तक शक्ति की सिध्दि न हो जाए, तब तक समर छोड़ देने को कहते हैं। राम जामवंत के सुझाव को मानते हैं और देवी के रूप में देश आराधना करते हैं। भारत का पूरा नक्शा खिंच जाता है। देवी उनकी परीक्षा के लिए पूजा का अंतिम कमल साधना-स्थल से उठा ले जाती है। राम एक बार फिर निरर्थकता बोध से भर उठते हैं। लेकिन कभी न थकने वाला राम का जो 'एक और मन' है, उसे याद आता है कि माता उन्हें हमेशा कमलनयन कहती थीं। नेत्रों के रूप में उनके पास दो नीलकमल शेष हैं। उनमें से एक कमल देवी यानी देश की पूजा में चढ़ा कर वे यज्ञ पूरा करने का संकल्प करते हैं। वे महाफलक हाथ में लेकर ऑंख निकालने के लिए उद्यत होते हैं तो भगवती आकर उनका हाथ पकड़ लेती हैं। राम को विजय का आशीर्वाद देकर उनके बदन में लीन हो जाती हैं।
हम यह जानते हैं कि यह एक फैंटेसी है। इसका दलित-पाठ तो भला क्यों होगा, ब्राह्मण-पाठ इस अर्थ में होता रहा है कि 'शक्तिपूजा' निराला के निजी जीवन के संघर्षों और उसमें खाई चोटों की गाथा। है। यह संकुचित ही नहीं, गलत अर्थ है और उस प्रवृत्ति को दर्शाता है जिसके तहत अगर कोई ब्राह्मण लेखक व्यवस्था से किंचित प्रताड़ित होता है तो माक्र्सवादी ब्राह्मण प्रताड़ना को ही उसकी महत्ता का आधार बना देते हैं। इससे नुकसान यह होता है सम्बध्द लेखक के साहित्य की महत्ता दब जाती है। यानी उसमें जो युग सत्य अभिव्यक्ति पाता है, उसकी उपेक्षा हो जाती है। निराला और हजारी प्रसाद द्विवेदी इस प्रवृत्ति के ज्यादा शिकार बने हैं। बहरहाल, 'शक्तिपूजा' उपनिवेशवादी सत्ता- प्रतिष्ठान और उसे चलाने वाली शक्ति का विकल्प अर्जित करने की क्रांतिकारी चेतना से बनी कविता है। केवल रावण को हरा देना और उसका उत्सव मनाते रहना पर्याप्त नहीं है। रावण की शक्ति को राम के हक में करना होगा। तब रावण रावण नहीं रह जाएगा। वह भयानक युध्द भी आगे नहीं होगा जिसका वर्णन कविता के शुरू में आया है। निराला ने आगे का युध्द दिखाया भी नहीं है। 'होगी जय होगी जय' के घोष और 'पुरुषोत्तम नवीन' के वदन में शक्ति के लीन होने के साथ कविता समाप्त हो जाती है। कोई उत्तेजना अथवा उन्मत्तता का माहौल नहीं रहता है। यह जय मनुष्यता की जय है।
क्या यह राम-राज्य की जय है? हमारे दलित साथी और सोनिया के सेकुलर सिपाही भड़कें नहीं। हम 'शक्तिपूजा' के राम और उसमें जो राम-राज्य का संदेश हो सकता है, अगर हो सकता है, उसकी बात कर रहे हैं। 'शक्तिपूजा' के राम भालू-बंदरों से घिरे हैं। उनका चौदह वर्ष वन में काटना यहाँ विशेष अर्थ प्राप्त कर लेता है। भल्लनाथ जामवंत उन्हें उपाय सुझाते हैं। उस उपाय की पालना में राम ऑंख तक निकाल कर देने को तैयार हो जाते हैं। राम का जो 'एक और मन' है वह अपनी माँ से प्रेरित होता है। विवशता के चरम क्षण में वह सीता का स्मरण करता है। देश की देवी के रूप में पूजा करता है। शक्तियों और सभ्यताओं की टकराहट के दौर में मातृ-शक्ति पर आधरित मातृ-सभ्यता का यह प्रस्ताव क्या उचित नहीं है? और, संप्रदायवादियों ने राम का जो रूप बिगाड़ कर रख दिया है, उसका यह जवाब नहीं है?
'शक्तिपूजा' की चर्चा को यहाँ और आगे नहीं बढ़ाएंगे। हमने उसका हवाला इसलिए लिया है कि 'अन्याय जिधर है उधर शक्ति' जैसी स्थिति फिर से उपस्थित है। 'शक्तिपूजा' की रचना के बाद आई आजादी की सुबह कभी की तिरोहित हो चुकी है। साम्राज्यवाद का अमेरिकी संस्करण और ज्यादा अन्यायपूर्ण और आततायी है। उसका प्रतिरोध करने वाले व्यक्ति और समूह ऐसे में क्या करें? शक्ति साम्राज्य के मोह में जो गिरफ्तार है उसे कैसे बाहर निकालें? शक्ति की मौलिक कल्पना कैसे करें?
आइए आज की स्थिति पर नजर डालते हैं। इक्कीसवीं शताब्दी का पहला दशक अब समाप्ति की ओर है। हम सभी जानते हैं भारत के साहब समाज, नेताओं और वैश्वीकरण के समर्थक बुध्दिजीवियों ने किस धूम-धड़ाके के साथ इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर कदम रखा था। गोया आजादी से पूर्व और आजादी के बाद खड़ी की गई समस्त बाधाओं को पिछले दस वर्षों में पार करके आखिर वे स्वर्ग के द्वार पर पहुँच गए हैं। नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में घटित हो कर रह जाने वाली भारतीय राजनीति के घोषणा पत्र पर यह निर्णय दर्ज कर दिया गया कि 'गरीब नर्क हैं, उनसे छुटकारा पाना ही होगा'। हमारे कुछ साथी कई लाख आत्महत्याओं के बाद किसानों को दिए जाने वाले 'पैकेज' और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून जैसी 'उपलब्धियों' का हवाला न देने लगें। हम पहले भी कह चुके हैं और आज भी कहते हैं कि यह सब छुटकारा पाने तक का बंदोबस्त है, और इस बात की गारंटी कि देश की अर्थव्यवस्था पूँजीपतियों, नेताओं, उनके दलालों, नौकरशाहों, बाजारवाद की भड़ैती करने वाले कलाकारों, बुध्दिजीवियों के लिए चलाई जा रही है और आगे भी चलाई जाएगी, और धूर्ततापूर्वक झूठ बोले जाएंगे कि सरकार की चिंता असमानता मिटाने की है। हाल में पंचायती राज व्यवस्था की मजबूती का आह्वान करते हुए प्रधानमंत्री ने असमानता मिटाने का वादा किया है। ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह दिन-रात इस कानून का गुण गाते हुए उसे दुनिया में अभूतपूर्व बताते नहीं थकते। समस्त सरकारी माध्यम प्रचार करने में जुटे रहते हैं कि यूपीए सरकार ने (यूपीए सरकार यानी सोनिया गांधी) गरीबों को मालामाल कर दिया है।
हम इसे संविधान में दर्ज वादों और दायित्वों की तौहीन मानते हैं कि देश की विशाल वंचित आबादी को साल में सौ दिन साठ रुपया रोज पर मिट्टी कोड़ने के काम में लगाने को उपलब्धि बताया जाए। जो यह समझते हैं कि उन्होंने सरकार से यह राहत गरीबों को दिलवाई है और उसके बदले में सोनिया गांधी और मनमोहन मंडली के गुणगायक और सहायक बने हुए हैं, वे अगर गौर करेंगे तो पाएंगे कि ऐसा कुछ यह सरकार खुद भी करती। आखिर 'नया इंडिया' बनाने के लिए बेगार तो चाहिए। जी हाँ, ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून बेगार प्रथा का वर्तमान संस्करण है। सामंत भी बेगार के बदले पेट में कुछ डालने के लिए देते थे। मेहनतकशों के लिए भागते भूत की लंगोटी और उनकी मेहनत पर मौज मारने वालों के लिए खुली लूट-तो फिर संविधान रखा किस लिए जा रहा है? शपथ खाकर लूट की व्यवस्था चलाने के लिए! तभी साम्राज्यवादी सत्ताा-प्रतिष्ठान के चाकर पूँजीपति नसीहत देते हैं कि देश का प्रधनमंत्री कौन होना चाहिए? वित्तमंत्री तो वे अपना पिछले बीस साल से बनवाते आ ही रहे थे। क्या कहते हैं सीपीएम के कामरेड अपने प्यारे रतन टाटा के बारे में? खैर, हमने एक उदाहरण दिया है। सच्चाई यह है कि पिछले बीस वर्षों के समस्त कानून और कार्यक्रम साम्राज्यवाद की सेवा में बनाए गए हैं। यही इक्कसवीं सदी के 'नए इंडिया' का जयघोष है।
लिहाजा, नवउदारवाद के पैरोकार आज भी वैसे ही उन्मत्ता हैं जैसे इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के वक्त थे। हालांकि बीते दशक में भारत सहित दुनिया की मानवता ने पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के अनेक निष्ठुर प्रहार झेले हैं। उनकी सूची देने की जरूरत नहीं है। सब आपके सामने है और आगे भी रहने वाला है। चुनौती साम्राज्यवाद के प्रतिरोध की है। जो नहीं हो पा रहा है। दरअसल, साम्राज्यवादी व्यवस्था ने अपने प्रतिरोध की शक्तियों और कार्यप्रणाली (रास्ता) को भी खुद ही गढ़ा है। ऐसा करना उसके लिए जरूरी है ताकि कम से कम नुकसान उठा कर व्यवस्था को मजबूती के साथ चलाए रखा जाए। यह उसकी वैकल्पिक विचारधारा और प्रतिरोध की वैकल्पिक कार्यप्रणाली को निष्क्रिय करने की विशेष पध्दति है, जिस पर वह विशेष ध्यान भी देती है। हम यहाँ केवल तालिबान और अलकायदा जैसी शक्तियों और प्रतिरोध के उनके रास्ते के बारे में बात नहीं कर रहे हैं। हम माक्र्सवाद के विभिन्न रूपों से लेकर वर्ल्ड सोशल फोरम, जो अनेक एनजीओ का पुंज है, की बात भी कर रहे हैं। मजदूर, किसान और छात्र यूनियनों की भी, और सरकारी व मठी गांधीवादियों की भी। पूँजीवाद के पेट से पैदा अथवा उसके ऑंचल में पल-पुसने वाली इन प्रतिरोधात्मक शक्तियों पर पूँजीवाद की नजर और पकड़ हमेशा बनी रहती है। जाहिर है, अपने खड़े किए प्रतिरोधों से निपटना पूँजीवादी साम्राज्यवाद अच्छी तरह से जानता है। वह कभी न टूटने वाले संकल्प से परिचालित होता है कि अपने पेटे के बाहर की प्रतिरोधी विचारधारा और कार्यप्रणाली को हर हालत में निष्क्रिय बनाना है।
'यह वह माक्र्सवाद नहीं है जो माक्र्स और एंगल्स ने दिया था, एक दिन माक्र्स और उनके माक्र्सवाद की वापसी होगी, बल्कि हो चुकी है' - इन शास्त्रीय ओटों में मन को तसल्ली भले दी जा सकती हो, पूँजीवादी साम्राज्यवाद का विकल्प प्रस्तुत नहीं किया जा सका है। भारत से ज्यादा यह सच्चाई दुनिया में और कौन जान सकता है कि जड़ शास्त्रवादी 'परिपूर्णता' और 'पवित्रता' के दावों में जीते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी, युग दर युग अपना पंथ चलाते रहे हैं। शास्त्रीय माक्र्सवाद की ओट में यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि वैज्ञानिक समाजवाद पूँजीवाद को पूर्वमान्य करके चलता है। यानी उपनिवेशवादियों द्वारा तीसरी दुनिया की लूट और तबाही को उसका सैध्दांतिक समर्थन होता है। वरना ठहरे/पिछड़े हुए समाज गतिशील कैसे होते? कोई हमें माक्र्स के भारत संबंधी लेखों का हवाला मत देने लगना। उपनिवेशिक ताकत की 'ऐतिहासिक भूमिका' के हम कतई कायल नहीं हैं। दरअसल, तीसरी दुनिया का वास्तविक इतिहास तभी बनेगा जब पूँजीवाद की कथित 'ऐतिहासिक' भूमिका को नकार दिया जाएगा। शायद तभी पूँजीवादी साम्राज्यवाद विरोध की चेतना भी बहाल हो सकेगी।
बात इक्कीसवीं सदी के पहले दशक को लेकर शुरू हुई थी। पिछले दशक में हमने देश की आजादी से जुड़ी कई महत्वपूर्ण घटनाओं, आदर्शों और नेताओं का स्मरण किया है। उनमें प्रमुख हैं - सुभाषचंद्र बोस का जन्म शताब्दी वर्ष, चंद्रशेखर आजाद का जन्मशताब्दी वर्ष, भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के 75 वर्ष, भगत सिंह का जन्म शताब्दी वर्ष, खुदीराम बोस की शहादत का शताब्दी वर्ष, 1857 (सत्ताावन) के संग्राम की डेढ़ सौवीं सालगिरह, जेपी का जन्मशताब्दी वर्ष, सत्याग्रह की शुरुआत का शताब्दी वर्ष और अब 'हिंद स्वराज' लिखे जाने का शताब्दी वर्ष। इस साल मार्च से लोहिया का जन्मशताब्दी वर्ष भी शुरू होने जा रहा है जिसे मनाने की तैयारी साथी कर रहे हैं।
उपर्युक्त अवसरों पर ज्यादातर कार्यक्रम सरकारी स्तर पर अथवा सरकारी सहायता से संपन्न हुए हैं। हालांकि कुछ लोगों और संगठनों ने आपसी सहयोग से सरकारी तंत्र के बाहर भी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन किया। इसके अलावा राजनैतिक पार्टियों ने भी अपने आयोजन किए। 1857 को लेकर देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों में ठना-ठनी हो गई थी। जबकि माक्र्सवादी पार्टियों और बुध्दिजीवियों ने संदेश देने की कोशिश की कि 1857 पर केवल उनका पेटेंट है। साम्राज्यवाद विरोध के संघर्ष में आगे रहने वाले कुछ साथियों ने सरकारी स्तर पर आयोजित कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाने से लेकर उनमें सक्रिय हिस्सेदारी की। अनेक गैर-सरकारी और स्वायत्ता कही जाने वाली संस्थाओं ने सरकार से धन लिया। 1857 की डेढ़ सौवीं सालगिरह का ऐसा जोर चला कि सरकार ने खजाना खोल दिया। कुछ साथी कहते हैं कि सरकारी खजाना खुल गया था इसलिए ज्यादा जोर चला! जो भी हो, लेने वालों ने लंबे हाथ पसार कर सरकारी धन लिया। हम उसमें नुक्ता नहीं निकालते। साथियों को लग सकता हैे कि साम्राज्यवाद विरोध की चेतना संगठित करने में सरकारी सहयोग किया/लिया जाना चाहिए। यह तो साथी मानते ही हैं कि उस दिशा में विदेशी धन लेने वाले एनजीओ भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। ऐसे तर्क प्रचलन में आ गए हैं कि सरकारी संस्थाओं और विभागों में नौकरी करने वाले लोगों की तनख्वाहों और अन्य सुविधाओं में विदेशी धन मिला होता है। लिहाजा, एनजीओ का विदेशी धन लेना गलत नहीं है।
हमारी चिंता अलग है। साल दर साल पूरे देश में असंख्य और भव्यतम कार्यक्रम संपन्न होने के बावजूद साम्राज्यवाद विरोध की चेतना संगठित और प्रभावी नहीं हो पाई। सब कुछ जैसे उत्सव बन कर रह गया। क्या यह मानें कि साम्राज्यवाद विरोध की चेतना अब पैदा ही नहीं हो पाती है? वरना यह कैसे संभव है कि स्वतंत्रता संघर्ष की इतनी विराट और प्रेरणाप्रद घटनाओं, आदर्शों और नेताओं को याद करते रहें और देश की राजनीति में वह होता रहे जो हो रहा है। यानी गुलामी और केवल गुलामी। हमारे कुछ साथियों को स्वतंत्रता का संघर्ष भले ही समझौतावादी लगता हो, उस दौर में देशवासियों की कुर्बानियों, जो हिंसक और अहिंसक दोनों रास्तों पर दी गईं, की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता। हमने पिछले महीने रॉस टापू, जहाँ 1857 के बागियों को बंदी बना कर ले जाया गया था और अंडमान स्थित सेलुलर जेल को देखा, जहाँ बाद में क्रांतिकारियों को ले जाकर कैद रखा जाता था। रॉस टापू पर अंग्रेजों ने अपने लिए 'मिनी पेरिस' बसाया था जो 1941 के भूकम्प में और फिर 1942 में जापानियों के आधिपत्य के चलते विनष्ट हुआ। लेकिन उसके काफी पहले अंग्रेजों ने पोर्ट ब्लेयर में अपना वैभव कायम कर लिया था। रॉस और पोर्ट ब्लेयर का वह वैभव सेकुलर जेल में लगे चित्रों में देखा जा सकता है। उस पाशविक बरताव की कहानियाँ भी वहाँ खुदी हैं जो अंग्रेज आजादी के दीवानों के साथ करते थे। लेकिन हमारे विद्वान हमें उसी दिन से पट्टी पढ़ा रहे हैं कि अंग्रेज प्रगतिशील थे और भारतीय क्रांतिकारी सामंती!
बहरहाल, इनकार शुरू से ही मौजूद रही खांटी साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से भी नहीं किया जा सकता। न ही पूँजीवादी साम्राज्यवाद के विरोध की उस वैकल्पिक विचाधारा के होने से जिसे गांधी ने गढ़ने की कोशिश की थी। हमारे आधुनिक और प्रगतिवादी साथियों के यहाँ सबको माफी है सिवाय 'पिछड़े' भारत और 'बुर्जुवा' गांधी के। उनके विचार में उनमें कोई क्रांतिकारी तत्व हो ही नहीं सकता। इसलिए आम भारतीयों की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना और गांधी की साम्राज्यवाद के विरोध की वैकल्पिक विचारधारा की बात जाने दें। फिर भी देशवासियों द्वारा दी गईं कुर्बानियों के मद्देनजर विचार करें तो जिन्हें समाज और राष्ट्र का अपराधी करार दिया जाना चाहिए, वे देश के नियंता और निर्णायक बने हुए हैं। साम्राज्यवाद के इन गुलामों को मीडिया और बुध्दिजीवी लोगों के बीच तारनहार, त्यागमूर्ति, विकास-पुरुष, युवा हृदय-सम्राट और न जाने क्या-क्या प्रचारित करते हैं, और हम कुछ नहीं कर पाते हैं।
आध्ुनिक युग में ठीक ही युवा-शक्ति पर बहुत भरोसा जताया जाता है। सभी देशों के राजनैतिक दल और अन्य संगठन युवा-शक्ति का आह्वान करते पाए जाते हैं। लेकिन भारत का परिदृश्य निराशाजनक है। कांग्रेस और भाजपा से लेकर क्षेत्रीय पार्टियों के साथ लगे युवक, नेताओं के बेटे-बेटियों के पिछलग्गू बने घूमते हैं। वे पोस्टर और होर्डिंग लगा कर अपने आक़ाओं को खुश करने में लगे रहते हैं। पूरा देश इस तरह के पोस्टरों-होर्डिंगों से पटा हुआ है। वामपंथी पार्टियों में युवकों के लिए करने को कुछ खास नहीं होता। पहले से 'लाइन' तय होती है। झोला उठाइए, लग जाइए। थोड़ा उग्र किस्म के माक्र्सवादी हुए तो 'नव-गांधीवाद' को ठिकाने लगाने में दिमाग लगाते रहिए। कहने का आशय यह है कि क्रांतिकारियों के जन्म और शहादत दिवस और वर्ष के कार्यक्रमों में शामिल होने के बावजूद ज्यादातर युवक भी कोरे रह जाते हैं। सुभाष चन्द्र बोस का तरुण्ााई का सपना उनमें प्रेरणा नहीं फूँक पाता। मीडिया में जब यह कहा जाता है कि युवा नेतृत्व आगे आना चाहिए तो नेताओं के उन बेटों से ही मुराद होती है, जो संसद में मौज-मस्ती करते हैं और जिन्हें अंग्रेजी दैनिक 'इंडियन एक्सप्रेस' ने पिछले दिनों 'युवा तुर्क' बना कर पाठकों के सामने कई दिनों तक पेश किया था। आपने देखा कि उस अखबार के एक भी पत्रकार या स्तंभकार ने यह सवाल नहीं उठाया कि युवा तुर्क के क्या मायने होते हैं और नेताओं के बेटे युवा होने से ही युवा तुर्क कैसे हो गए? उलटे पूँजीवादी साम्राज्यवाद के धुर समर्थक इस अखबार के संपादक को गणतंत्र दिवस पर महामहिम राष्ट्रपति ने पद्म पुरस्कार प्रदान किया है। हमें साम्राज्यवाद के गुलामों की अनंत कथा में नहीं जाना है। इतना कहना था कि देश की युवा-शक्ति में भी उपर्युक्त कार्यक्रमों से साम्राज्यवाद विरोध्ी चेतना का संचरण नहीं हो पाया।
आज की वास्तविकता यही है कि साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष का परिणाम नहीं निकलता। बल्कि साम्राज्यवाद शक्तिशाली होता जाता है। साम्राज्यवाद के गढ़ अमेरिका से शुरू होकर बाकी दुनिया पर असर डालने वाली आर्थिक मंदी को हम साम्राज्यवाद के ढहने की शुरुआत नहीं मानते। उसे इस तरह के संकटों से ढहना होता तो 1930 के दशक में ही ढह जाता। तब कम से कम दुनिया के कई देशों में समाजवादी आंदोलन का जोर था और औपनिवेशिक गुलामी झेलने वाले देशों में आजादी के संघर्ष का। अब तो माक्र्सवादी आगे बढ़-बढ़ कर पूँजीवाद को लुभाने और अपने देश-प्रदेश में लाने की घोषणा करते हैं। जैसा कि पिछले अंक में हमने लिखा था-अमेरिका के पहले अर्ध्द-अश्वेत राष्ट्रपति को हम साम्राज्यवाद के बाहर की कोई ताकत नहीं मानते। वैसे भी इस लेख में हम भारत में चलने वाले साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष पर विचार कर रहे हैं, जो पिछले बीस वर्षों से एक बार फिर साम्राज्यवाद की चरागाह बन कर रह गया है।
साम्राज्यवाद विरोध की शक्तियों के बिखराव पर अक्सर चिंता की जाती है। वह सही चिंता है। कहने की जरूरत नहीं कि विरोध की शक्तियों को बिखराव में डाले रहना साम्राज्यवाद को माफिक आता है। लेकिन बिखराव के बावजूद, अगर शक्ति है, तो उसका कहीं कुछ असर दिखाई देना चाहिए। आगे का रास्ता भी बनता दिखना चाहिए। 1992 में हमने भारत छोड़ो आंदोलन की पचासवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई थी। वही समय मनमोहन सिंह की मार्फत नई आर्थिक नीतियों की शुरुआत का था। तब से अब तक नई आर्थिक नीतियाँ तो अपना काम कर गईं। यानी भारत पूँजीवादी साम्राज्यवाद का मातहत बन गया। लेकिन क्रांतिकारी विरासत की याद और चौतरफा संघर्ष के अनेक प्रयासों के परिणाम स्वरूप सामाजिक, राजनीतिक अथवा बौध्दिक क्षेत्र में कतिपय अचूक और मजबूत साम्राज्यवाद विरोधी उपस्थितियाँ उभर कर सामने आनी चाहिए थीं, वह नहीं हुआ। उलटे बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ और भारत साम्प्रदायिकता के बाद आतंकवाद का भी शिकार हो गया। एक अरब बीस करोड़ की आबादी के देश में, जहाँ अधिसंख्य लोग हर तरह के अन्याय का शिकार हैं, मुख्यधारा के बाहर एक भी नेता की ऐसी प्रतिष्ठा नहीं है कि वह विधानसभा या लोकसभा का चुनाव जीत सके। साम्राज्यवादी आदेश पर चलने वाली भारत की राजनीति का प्रतीकात्मक विरोध करने के लिए एक-दो लोग संसद या विधानसभाओं में जा सकें, इसके लिए बार-बार प्रयास होते हैं लेकिन उसमें भी सफलता नहीं मिलती। जबकि नेताओं के रिश्तेदार, माफिया, उद्योगपति, फिल्मी हीरो सोचते बाद में हैं, संसद में प्रवेश पहले मिल जाता है। शक्ति के इस खेल पर गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा, भले ही फिलहाल समर छोड़ देना पड़े।
आइए कुछ देर के लिए अपने को कटघरे में खड़ा करें। जिसे बिखराव कहा जाता है, कहीं वह भटकाव तो नहीं है? यानी निरंतर बना रहने वाला बिखराव हमारे भटकाव के चलते तो नहीं है? सीध्ी अभिव्यक्ति में कहें - स्मरण और संघर्ष करते हुए भी हम पूँजीवाद के पथ पर तो नहीं भटके रहते हैं? यानी हम पूँजीवाद की चलाई पध्दति के तहत तो प्रतिरोधरत नहीं होते हैं? अगर ऐसा नहीं होता तो पूँजीवादी विकास और जीवनशैली उन लोगों के मन-मानस में भी कैसे रम जाती है जो उसका सीधे शिकार हैं? हमने शिक्षा, मीडिया, शोध, भाषा, संभाषण आदि में वह सब कुछ किया होगा तभी तो पूँजीवाद का प्रभाव इतना गहरे पैठा है? अपने बचाव में तो हम कह सकते हैं कि पूँजीवादी जीवनशैली अपना कर भी हम प्रगतिशील हैं, क्योंकि विचारधारा से हम प्रगतिशील हैं। लेकिन यह सवाल तो है कि आजादी के बाद से समस्त बौध्दिक उद्यम हमारे हाथ में रहा है, फिर ऐसा क्यों है कि पूँजीवाद विरोध की प्रेरणा न हमारा इतिहास देता है, न राजनीति शास्त्र, न समाजशास्त्र, शिक्षाशास्त्र और न ही कला और साहित्य।
निराशा और गहरी हो जाती है जब देखते हैं कि अगर कहीं से कोई प्रेरणा बन सकती है तो हमने उसे सप्रयास नष्ट करने का प्रयास किया है, बलिक नष्ट किया है। हाल का एक अनुभव आपसे साझा करना चाहते हैं। देश के मूर्धन्य अर्थशास्त्री और साम्राज्यवाद विरोध के एक महत्वपूर्ण अगुआ प्रोफेसर कमलनयन काबरा ने लोहिया का 1943-44 के बीच लिखा गया लंबा किंतु अधूरा निबंध 'इकॉनॉमिक्स आफ्टर माक्र्स' हमसे पिछले साल पढ़ने के लिए लिया। उन्होंने हाल में एक-दो बार लोहिया की संसद में की गईं आर्थिक बहसों के बारे में भी हमसे जानकारी ली है। यानी देश की वामपंथी विद्वता के दायरे से लोहिया बहिष्कृत रहे हैं। ऐसा सप्रयास किया गया है। कुछ साल पहले प्रकाशित दूधनाथ सिंह के उपन्यास 'आखरी कलाम' का कथानायक वैसा निबंध लिखने को लोहिया की हिमाकत बताता है। हम यहाँ यह सिध्द नहीं करने जा रहे हैं कि पूँजीवाद और साम्यवाद दोनों को पूण्र्[1]ा रूप से परिवर्ध्दित और अंतत: बंद व्यवस्थाएं मानने वाले लोहिया के पास ही उनका वास्तविक विकल्प था और उसे आजमाना चाहिए। लोहिया तो एक उदाहरण हैं, हम उस प्रवृत्ति की तरफ ध्यान खींचना चाहते हैं जिसके तहत कांग्रेसी शासन से सुविध-प्राप्त विद्वानों ने भारत के बहुत-से महत्वपूर्ण विचारकों को विद्वता के दायरे से बाहर रखा है।
25 जनवरी को आईआईटी में प्रोफेसर उपाध्याय के यहाँ वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में विकल्प की अनौपचारिक चर्चा के लिए काबरा साहब का फोन आया कि हम भी उसमें आएं। फोन पर बात-चीत में उन्होंने हँस कर जिक्र किया कि किसी ने एक लेख में लिख दिया है कि गाँधी और लोहिया का विकल्प उपलब्ध है। प्रगति और विकास की ज्ञान-संरचना से बाहर रखे गए दो विचारकों को विकल्प बताने की बात पर काबरा साहब का हँसना गलत नहीं है। जिस विद्वत समाज का वे हिस्सा रहे हैं वहाँ ऐसा ही 'माइंडसेट' रहता है। वहाँ गाँधी और लोहिया जैसे विचारकों से फुटकर सहायता ली जा सकती है, उनके चिंतन को आधुनिक प्रगति और विकास का आधार नहीं बनाया जा सकता। ज्ञान और उसकी सरणियों की पूँजीवादी और माक्र्सवादी समझ ने विद्वानों का यह दिमागी दायरा (माइंडसेट) बनाया है। हम यहाँ फिर स्पष्ट कर दें कि यह उदाहरण देना गाँधी अथवा लोहिया के चिंतन को पूँजीवादी साम्राज्यवाद का एकमात्र विकल्प मानने की वकालत करना नहीं है। ज्ञान के क्षेत्रों में प्रचलित वैदुषिक वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी की कमी को रेखांकित करना है।
कुछ साथी कह सकते हैं कि यथार्थ को इस रूप में पेश करना निराशावाद है, और कुछ कह सकते हैं कि माक्र्सवाद को छोड़ कर और कौन-सी आशा है? आगे बढ़ने से पहले हम स्पष्ट कर दें कि भविष्य को लेकर हमें कोई निराशा नहीं है। अलबत्ता वर्तमान और निकट अतीत को लेकर जरूर निराश हैं, जिसे ज्यादातर पूँजीवाद, फासीवाद और साम्यवाद के सम्मिलित त्रिकोण ने अंजाम दिया है। गांधीवाद का थोड़ा-बहुत दखल आजादी के अहिंसक संघर्ष में कोई मानना चाहे तो मान लें, वरना देश-विदेश में आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था को बनाने और चलाने वालों में उनका कोई पुछत्तर नहीं रहा है। खुद आजाद भारत के पहले प्रधनमंत्री ने उनकी चिठ्ठी को कूड़ेदान के हवाले कर दिया था, उनकी नजर में वही उसकी सही जगह थी। अगर उस वाकिये का हम प्रतीकतार्थ करें तो भारतीय जनता को, जैसी भी भली-बुरी वह है, कूड़ेदान में फेंका गया था। हमारी निराशा के ठोस कारण हैं। साभ्यवादी व्यवस्था की स्थापना में और उसे चलाने-फैलाने के दौरान हुई हत्याओं को 'क्रांतिकारी कर्म' मान कर अलग निकाल दिया जाए, तो भी मानव सभ्यता के इस 'प्रगतिशील चरण' में कई करोड़ हत्याओं का आंकड़ा बताया जाता है। कई मानव समूहों का तो सफाया कर दिया गया है। हत्याओं की बात एकबारगी जाने दें - 'जो आया सो जाएगा राजा रंक फकीर'। भारतीय उपमहाद्वीप समेत एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका में किसी भी लिहाज से मानवीय नहीं कहा जा सकने वाला जीवन जीने वाले असंख्य लोग हमें निराशा से भर देते हैं।
उस दिन कामरेड आईके शुक्ला की याद में शमशुल भाई ने सभा रखी थी। काफी दिन बाद प्रोफेसर रणधीर सिंह से मिलना हुआ। उनकी हमारे ऊपर कृपा और भरोसा दोनों हैं। मिलते हैं तो अपने लेखन और कार्यक्रमों के बारे में उत्साह से बताते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि वे पूँजीवादी साम्राज्यवाद के विरोध की एक सच्ची आवाज हैं। उन्होंने बताया कि एक लेख में उन्होंने गाँधी का कुछ जिक्र किया है जो मेरे काम का हो सकता है। फिर बोले कि आजादी क्रांतिकारी रास्ते से आती तो आज यह सब न होता। क्रांतिकारी रास्ते से उनका आशय हिंसक रास्ते से है। उनकी वैसी सैधांतिक मान्यता के लिए उग्र वामपंथी साथी उनका सम्मान करते हैं। हम छिपी और खुली हिंसा से चौतरफा घिरे हैं तो वह अकारण नहीं है। हमें धर्मवीर भारती के 'अंध युग' की पंक्तियाँ अनायास ध्यान आ गईं - 'यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है'। आपको बता दें, हिंदी आलोचना में इस कृति को क्रान्ति का खलनायक बताया जाता रहा है।
एक और शास्त्रवादी माक्र्सवादी प्रोफेसर एजाज अहमद माक्र्सवाद की पुर्न प्रतिष्ठा होने की अनिवार्यता के बारे में लगातार लिख और बोल रहे हैं। 'युवा संवाद' के दिसंबर अंक में उनका 'फासीवाद एक निर्मम सूदखोर' लेख छपा है। लिखा है, ''द्वितीय विश्व युध्द के दौरान फासीवाद विरोधी प्रतिरोध में साम्यवादी पार्टियों की केंद्रीय भूमिका रही या सोवियत संघ ने फासीवाद की पराजय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युध्द में रूस के कुल हताहतों की संख्या मानव इतिहास के किसी भी युध्द में हुए हताहतों से अधिक थी तथा इसके अतिरिक्त केवल वियतनाम में ही संभव हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में जान का नुकसान उठाने वाला देश विजयी हुआ।'' एजाज साहब सोवियत रूस और वियतनाम के लाखों सैनिकों और लोगों की मौत को इसलिए इतना मान दे रहे हैं क्योंकि वे भौतिकवादी साम्यवाद की बलिवेदी पर हुईं। जबकि, जैसा कि उन्होंने अपने लेख में कहा है, फासीवादी देशों के सैनिक और लोग आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की बलिवेदी पर कुर्बान किए जाते हैं। साम्यवाद के रास्ते पर मरना इतना पवित्र है तो मारना उससे ज्यादा नही ंतो उतना अवश्य होता होगा!
हिंसा की समस्या जटिल है। परिस्थितिजन्य हिंसा का उद्वेग और विस्फोट व्यक्ति और समाजों में होता रहता है। लेकिन हिंसा की सैध्दांतिक संपुष्टि एक अलग चीज है। वह आध्ुनिकता-पूर्व के कई शास्त्रों और जीवन दर्शनों में मिलती है। गाँधीवाद के सिवाय आधुनिक युग की सभी विचारधाराएँ हिंसा की न केवल सैध्दांतिक संपुष्टि करती हैं, हिंसा से परिचालित भी हैं। उनकी हिंसा की चपेट में मनुष्यों के साथ बड़े पैमाने पर अन्य जीवधारी और प्रकृति भी आते हैं। यह जिक्र हमने इसलिए किया कि हम न केवल अपने दिमाग में पूँजीवादी विकास और प्रगति लिए घूमते हैं, हिंसा भी हमारे दिलो-दिमाग में जगह बनाए रहती है। शायद इसीलिए हम गाँधी के विचारों और पध्दति से रिश्ता नहीं बना पाते, जबकि पूँजीवाद और माक्र्सवाद से रिश्ता बनाने में हमें कोई दिक्कत नहीं होती।
ऐसा नहीं है कि हम पूँजी, टैक्नोलोजी और उत्पादन के विरोधी हैं। शालीन, शानदार, सर्जनात्मक और सुरक्षित जीवन के सब हकदार हैं। जिनका दमन और शोषण हुआ है वे सबसे पहले और सबसे ज्यादा। लेकिन पूँजीवाद में इसकी न इजाजत है, और जाहिर है, न व्यवस्था। पूँजीवादी प्रगति और विकास को आदर्श मानने वाला माक्र्सवाद वह कर देगा, ऐसी भी संभावना नहीं है। फिर भी हम कहीं न कहीं मानते हैं कि वैसा हो सकता है, बल्कि होना चाहिए। जब तक हमारे सोच में यह भटकाव रहेगा, और हिंसा बध्दमूल रहेगी, साम्राज्यवाद का सूरज भी चमकता रहेगा।
-प्रेम सिंह
लोकसंघर्ष पत्रिका में जल्द प्रकाशित