Loksangharsha: यूँ भी रस्मे वफ़ा...


यूँ भी रस्मे वफ़ा हम निभाते रहे
चोट
खाते रहे मुस्कुराते रहे

दिल की महफिल सजायी थी हमने मगर-
वो
रकीबो के घर आते - जाते रहे

गए वो तसस्वुर में जब कभी -
मीर
के शेर हम गुनगुनाते रहे

देखकर
जिनको चलने की आदत थी -
ठोकरे
हर कदम पर वो खाते रहे

जब भी 'राही' बुरा वक्त हम पर पड़ा -
हमसे अपने ही दामन बचाते रहे

डॉक्टर
यशवीर सिंह चंदेल ''राही''

2 comments:

  1. भाई जो दामन बचा कर निकल लिये वो अपने कैसे? अपने तो वो हैं जो हर हाल में साथ रहे हैं... इसी तरह दागे रहिए धांय..धांय..
    जय जय भड़ास

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  2. सुमन भाई आभार,

    बेहतरीन रचनाओं की माला पडोसते रहिये.
    जय जय भड़ास

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