अभी अभी दिल्ली में क्रमवार बम फूटे, मरने वालों का आंकडा मीडिया और प्रशासन की माने तो बीस है और घायल सौ के करीब। आतंक के निशाने पर देश की राजधानी आज से नही थी मगर सरकार की सुरक्षा इंतजामों के डापोरशंखी नाद को फोरते हुए आतंकियों ने अपने कार्य को अंजाम दे ही दिया।कई जगह हुए धमाके में से एक दिल्ली का दिल कनाटप्लेस भी था जहाँ मैं ख़ुद मौजूद था। धमाके की सुचना जैसे ही फ़ैली अखबारनवीसों के खिलते चेहरे का चश्मदीद गवाह भी। धमाके के बाद पोलिस और मीडिया जनों की मुस्तैदी देखने लायक थी, आखिर दोनों में यही तो समानता है की घटना होने के तुंरत बाद ही दोनों मुस्तैद होते हैं, एक को खानापूर्ति करनी होती है तो दुसरे को ख़बर को बेचने की जल्दी। मुस्तैदी और कर्तव्य परायणता की कुछ झलकियाँ भी इन तस्वीरों के बहाने
संवेदनशीलता की पराकाष्ठा, मगर किसके लिए ?
पत्रकारों के साथ कन्धा से कन्धा मिलाते पुलिसकर्मी, मुस्तैदी जो दिखानी है। पत्रकारों का झुंड, ख़बर को बेचने की जल्दी में सब कुछ दांव पर।
घटना के वक्त मैं एक प्रतिष्ठित अखबार के सम्पादकीय में था और गवाह उसका कि इस धमाके को कैसे अखबारनवीस कैश कर सकते हैं, सबको फिकर कि कोई मुद्दा छुट ना जाए।
बात ज्यादा पुरानी नहीं है, बिहार में कोशी का पानी उतरा और उतर गयी मीडिया के सर से कोशी का भूत। क्यूंकि बिकाऊ बाढ़ का पानी था बाढ़ की बाद अन्न अन्न को तरसते लोग नहीं.
बिहार के बाढ़ के प्रति मीडिया, प्रशासन और विकाश पुरुष कि संवेदनशीलता का इन्तेजार कीजिये। अगले लेख में।
जय जय भड़ास
बालक! रजनीश भाई की यह पोस्ट शायद लोगों को कसकर झकझोर पायी होगी
ReplyDeleteजय जय भड़ास
पुरानी यादें ताजा हो गयी,
ReplyDeleteभड़ास का भड़ास, आपका सार्थक प्रयास हो,
मीडिया अपनी सक्रियता वापस उसी अंदाज में दिखा रही है.
लगे रहिये.
जय जय भड़ास