भाई विनोद कुमार पत्रकार हैं, और टोटल टी वी के अपराध संवाददाता भी। भड़ास फॉर मीडिया पर उन्होंने टी वी पत्रकारिता के बारे में प्रश्न किए हैं, वस्तुतः ये प्रश्न ना होकर खबरिया चैनल के पत्रकार की व्यथा ज्यादा लगती है। भाई विनोद का कहना है की समाज उनकी अच्छाइयों को स्वीकारने के बजाय चैनल पर दोषारोपण करते हैं और अखबार जगत इनके सुर में सुर मिलाती हैं, मगर इन व्यथाओं के बीच में इन्होने खुली चुनोती भी कर दी की मुझे पढो और मेरे प्रश्नों के उत्तर दो, सो चलिए इनको भी निबटाते चलते हैं। वैसे भी जनता जिस तरह से राजनेता के ख़िलाफ़ हो गयी है और इस भगदड़ में राजनेता आंय बांय बयान दे रहे हैं, खतरे की घंटी पत्रकारों के लिए ही तो है, क्यौंकी राजनेता की तरह लोग पत्रकारिता से भी उब ही तो चुके हैं, घरों में लोग बिग बॉस और सास बहु सरीखे को तवज्जो देते हैं बनिस्पत खबरिया चैनल के और इसका प्रमाण टी आर पी की वोह रेटिंग है जो निरंतर बता रही है की लोगों की रुची समाचारों के चैनलों में कम होती जा रही है।
भाई विनोद के ढेरक प्रश्न हैं
- मुंबई पर हमले की जानकारी ज्यादातर लोगों को टीवी न्यूज चैनलों से ही क्यों मिली?
- ,क्यों अमिताभ बच्चन पिस्तौल रखकर सोए?
- क्यों सुरों की सरताज लता मंगेशकर तीन दिन में तीन सौ बार रोईं?
- क्यों तीन दिन तक उन्होंने टीवी बंद नहीं किया?क्यों शिल्पा शेट्टी को जैसे ही हमले का फोन आया तो उन्होंने तुरंत टीवी आन किया?
हर कोई कहता दिखा कि हमला भयावह था, ये किस आधार पर कह रहा था? सिर्फ सुनकर या पढ़कर। (जी नहीं, टीवी चैनल की स्क्रीन पर एके 47 लिए खड़े आतंकी को देखकर, गोलियों की आवाज और स्टेशन पर मची अफरातफरी को देखकर। जलता ताज देखकर। सैंकड़ों की तादाद में कमांडो देखकर।)भाई आपके प्रश्न बेहतरीन हैं, लाजवाब और आपके दर्द को भी बयां करता है मगर आपके सभी प्रश्न का उत्तर क्या सिर्फ़ इतना नही की व्यावसायिकता की दौड़ में आप तमाम लोगों ने पत्रकारिता का बलात्कार कर दिया है, निसंदेह कर रहे हैं। अयोध्या हो या गोधरा, बम के धमाके हों या मुंबई पर आतंकी हमला, आरुशी काण्ड हो या मोनिंदर काण्ड, आप सिर्फ़ एक प्रश्न के उत्तर दीजिये की क्या आपने और आपके जैसे तमाम लोगों ने, बड़ी बड़े पत्रकारों ने, पत्रकारिता के भीष्म ने सिर्फ़ पत्रकारिता की या निर्णयकर्ता बन गए ? प्रश्न सिर्फ़ टी वी पत्रकारिता से नही है अपितु अखबारों से भी।
मुम्बई का आतंकी हमला भारत पर हमला था और ख़बर में जैसा की आपने लिखा अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, शिल्पा शेट्टी, यानी की बम के हादसे में भी टी वी की चमक दमक को भुनाने की लिए सितारे का सहारा, माफ़ कीजिये और याद कीजिये बहुत से नाम आपने छोर दिए हैं?
शायद आपको याद हो आपने आरुशी के पिता को आरुशी का हत्यारा साबित कर दिया था।
प्रिन्स का गढ्ढे में होने से निकालने तक आपकी तत्परता हमने टी वी में देखी है, या फ़िर यूं कहिये की देश ने झेली है, चलिए अब पत्रकारिता पर आ जाते हैं, ज्यादा पुरानी बात नही है जब पत्रकारिता ने व्यावसायिक रूप नही लिया था। पत्रकारिता के आधार स्तम्भ कहीं से पत्रकारिता पढ़ लिख कर नही आए, नाम मैं नही कहूंगा क्यौंकी आप ख़ुद जानते हैं। जो पढ़ लिख कर नही आए उन्होंने पत्रकारिता को जिया है, पत्रकारिता के लिए एक आयाम कायम किया है क्यौंकी वोह लाला जी के हाथों की कठपुतली नही हुआ करते थे, उनके पत्रकारिता में व्यावसायिकता नही हुआ करती थी, जो खंती पत्रकार हुआ करते थे और (वरिष्ट पत्रकार स्वर्गीय गजेन्द्र नारायण चौधरी के शब्दों में पत्रकारिता कभी पढ़ लिख कर नही आ सकती क्यौंकी ये वो शय है जो लहू में दौड़ती है, जब एक पत्रकार साँस लेता है तो वोह पत्रकारिता से भरी होती है। आँखें खुलती है तो पत्रकारिता दिखता है, मगर इस के लिए पत्रकार होना जरुरी है और मॉस कॉम तथा जर्नलिजम करके आप व्यावसायिकता सीख सकते हें पत्रकारिता नही) ना की धंधेबाज, व्यावसायिक पत्रकार को इस से बेहतर शब्द नही मिल सकते।
भाई आप तो अपराध संवाददाता हैं, पत्रकार भी क्या आपको पता है की
- जस्टिस आनंद सिंह कौन हैं?
- क्या किसी टी वि चैनल पर आपने इन्हें देखा है?
- क्या किसी जज को पाँच साल की सजा मिलती है वोह मीडिया नजर से दूर हो सकता है?बाईज्जत रिहा होने के बाद एक जज को सुप्रीम कोर्ट में दाखिल नही होने दिया जाता है आपको ख़बर है?
शायद आप जवाब दें ?
सेना का गुणगान करने वाली ये ही मीडिया अभी कुछ दिनों पूर्व मालेगाव कांड पर साध्वी के साथ सेना को जम कर कोस रही थी क्यौंकी ये ही तो पत्रकारिता है?
आज हमारा लोकतंत्र अपने चारो पाये से भले ही जर्जर हो चुका हो मगर हमारे देश के लोग एक हैं और हमारी एकता आज दुनिया देख रही है।
न्यायपालिका, व्यव्हारपालिका, कार्यपालिका और पत्रकारिता के शोषण और दोहन से आजिज लोगों का एक होकर इन चरों जरजर पाये का मरम्मत करना तय है।
जाति-पाती, कॉम धर्म, प्रान्त क्षेत्र, भाषा बोली से ऊपर एक भारतीयता का बिगुल बज चुका है,बस और बस............................
rajnish bhai.
ReplyDeleteapne bilkul satik prashna kiya hai. Tv media sirf vigyapan bechane ke liye journalism kar raha hai.
रजनीश भाई,वणिक सोच के तोलू और साधू(साधु नहीं)किस्म के लोग क्या घंटा पत्रकारिता करेंगे?जब हमने सामाजिक जीवन के गणित को एक गुरूघंटाल से जानना चाहा तो उन्होंने कहा कि बेटा ये दुनिया है अगर इसके आगे झुके तो ये तुम्हारी मार लेगी और अगर तुमने इसकी मार ली तो ये तुम्हारे आगे झुक जाती है। इस फटहे कुपत्रकार को जरा अपने सवाल मेल कर दीजिये साला चुप्पी साध जाएगा बड़ी ही कुटिलता से। जज साहब के बारें के लिखने से तो अच्छे-अच्छों की फटती है। इन चूतियों से लाख गुना ईमानदार और बहादुर तो वो बच्ची वंदना है जिसने कुछ तो लिखने की हिम्मत करी लेकिन संपादक की ही फटे तो बेचारी क्या करती....
ReplyDeleteजय जय भड़ास
रजनीश भाई,
ReplyDeleteसही कहा है आपने, बाजारवाद की भीड़ में बैंगन की तरह बिकने वाले ये लोग अब पत्रकार ना होकर लाला जी के इशारे पर दलाली में लिप्त हुए दल्ले मात्र हैं, कहाँ गए ये पत्रकार जब बाढ़ की विभीषिका के बाद अन्न अन्न को तरस रहे थे लोग, क्यूँकी टी वी पर बाढ़ का पानी बिकता है.
भूख से तड़पते बच्चे, शरीर को ढंकने की बमुश्किल कोशिश करती महिलायें, दवा के लिए लोगों की तड़पन जो अब भी बिहार के बाढ़ पीडित इलाके में मौजूद है इन चैनल वालों को नही दीखता, क्यौंकी ये नही बिकता.
पुण्यप्रसून जी हों या रविश कुमार भावनाओं के ज्वार भाटा में ब्लोगर और स्वम्भू बुध्धीजीवी को बहा सकते हैं मगर इनकी पत्रकारिता भी वही ख़तम हो जाती है जहाँ चमक दमक भरे रौशनी में ये नहाते हैं.
राजनेता की तरह ही पत्रकारिता हमारे देश का बलात्कारी है ये अक्षरश: सत्य है, बाजार में अगर बैंगन और आलू की कीमत है तो बस इतनी ही पत्रकारिता की भी