मुम्बई हो या झुमरी तलैया प्रशसन और कार्यपालिका सब जगह एक जैसी ही। मैथिली में एक मुहावरा है कि "भोज काल में कुम्हर रोपु" और इसको चरितार्थ करते हैं हमारे ये प्रशसन जब बारिश का महिना आता है। अभी-अभी मोनसून का पदार्पन ओर मुम्बई (बी एम सी) कि सारी पोलपट्टी यौं खुली मानो छोटे बच्चे की पेंट का नाडा जब तब खुलता रहता है। इतिहास से सीख लेने की बजाय वापस अपने पुराने कार्य को दुहराते हुए बारिश से ठीक पहले सभी नाले की उगाही शुरु, अव्यवस्था का आलम ऐसा कि सीवर की खुदाई ओर सडक खुलना तब सुरु जबकि अगले दिन से मोनसुन का आगमन। वाह रे हमारे डपोरशंख ओर आपके डपोरशंखी दावे।
जब जब अन्य राज्य से तुलना करो तो खुद को हमेशा बेहतर ओर समर्थ बताने वाले निकम्मों कि पोलपट्टी खुल कर सामने। सडक पर जाम, गन्दगी का अम्बार और दावों कि पोल बहते हुए पानी के साथ समन्दर की ओर।
कुल मिलाकर हमारे देश के तन्त्र को चलाने वाले लोग एक ही नाडे से बन्धे हुए हैं। और लालफ़िताशाही के मंजे हुए खिलाडी हैं।
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सच को आत्मसात करने से मराठियों का इनकार.......
उपद्रव, हिंसा, तोड़फोड़, गैर भारतीय का पर्याय बना महाराष्ट्र।
लोकसत्ता के सम्पादक कुमार केतकर एक बार फ़िर गवाह बने मराठी हिंसक प्रवृति के। केतकर का कुसूर सिर्फ़ इतना था की उन्होंने महाराष्ट्र विधान सभा द्वारा पारित शिवाजी के पुतले सम्बन्धी विषय पर सरकार की खिंचाई कर दी। एक निर्भीक इमानदार पत्रकार ने सच कहा और असभ्यता का पर्याय बना महाराष्ट्र इसे आत्मसात नही कर सका। ये कहानी बार बार दुहराई जा रही है मगर राजनीति पर परवान चढा यह प्रदेश राज्य से लेकर केन्द्र तक सिर्फ़ मुंह ताकने का सिला बन कर रह गया है.
जिस प्रान्त के अर्थव्यवस्था से लेकर जीवनधारा तक पर गैर मराठियों का अधिपत्य है, और नाकाबिलियत ऐसी की स्थापत्य समाज में योगदान शुन्य, विचारधारा का मोहताज ऐसा की सिर्फ़ और सिर्फ़ शिवाजी की दुहाई। मगर शिवा जी का एक ढर्रा अभी भी बरकरार....... हिंसक, और उपद्रव का आलम यानी की महाराष्ट्र।
चाहे गैर मराठी विरोध हो, या अपने अस्तित्व की लड़ाई, या फ़िर शिवाजी...... सभी में होड़। मगर ये होड़ किसका ??? मराठी लोगों के लिए .........महाराष्ट्र के लिए.......विकाश के लिए.......या फ़िर अपने स्वार्थ के लिए। आश्चर्य की थैले के सभी एक जैसे ही चट्टे बट्टे। तो फ़िर प्रश्न की क्या मराठी मानुष इन से अनजान हैं... या फ़िर वह इस स्पर्धा वाले दौर में नाकाबिल कि स्पर्धा के बजाये उपद्रव इन्हें सबसे आसान तरीका लगता है। उत्तर जो भी हो मगर हिन्दुस्तान की इस सरजमीं पर महाराष्ट्र निसंदेह पहले मराठी का ही है फ़िर बाहरियों का, मगर प्रतियोगिता में अपनी उपयोगिता साबित करना इनके लिए चुनौती।
फ़ोटो :-
1) लोकसत्ता के सम्पादक कुमार केतकर
2) केतकर के आवास के बाहर
फ़ोटो साभार:- The Hindu, Josh18.com
पत्रकार और उनका चरित्र ......... ?
मित्रों विशेषकर पत्रकार मित्रों माफ़ करना मगर क्या करूं भडास है सो निकाल रहा हू। किसी से मित्रता नही किसी से बैर नही मगर चेहरे से अनभिज्ञ भी नही। बात कर रहा हूँ पत्रकार की सो कसम भडास की सच ही कहूँगा क्यूंकि झूठे लोगों के बारे में सच कहने का बीड़ा मैने नही उठाया है मगर भडासी हूँ और भडास निकलना है। लिखने से पहले कह दूँ की आईने मैं मैंने अपनी तस्वीर पहले देखी है फ़िर लिख रहा हू। अभी मैं अपने कार्यवश मुम्बई में हूँ और पता नही कब तक मुम्बई में रुकना पड़े, नौकरी जो करनी है, सवाल पापी पेट का है। बीते कुछ पुराने दिनों की याद है कि जितने पत्रकारों की शकल देखता हूँ कुछ टीस सी उठती है की मैं कुछ नही कर पाया। मेरी एक मित्र हैं मैं नाम नही बताऊंगा जो की भारत के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी समाचार पत्र की मुम्बई की वरिष्ठ संवाददाता हैं। पिछले साल की बात है वह एक संवाददाता सम्मेलन में गयीं थीं। उनके साथ और भी पत्रकार होंगे। वापस लौटते समय एक अन्य वरिष्ट संवाददाता ने उनसे आग्रह किया की चलिए मैं आपको रास्ते मैं छोडता आगे चला जाऊंगा। दोनों साथ चले , कमाल है मुम्बई की टैक्सी का भी, टैक्सी के चालकों को कोई सरोकार नही होता की पीछे बैठे सीट पर हो क्या रहा है। बहरहाल उन सज्जन ने मेरी मित्र के साथ टैक्सी में भारी दुर्व्यवहार किया जिसका जिक्र मैं यहाँ नही कर सकता। मुझे दूरभास पे सूचना दी , मैं ठहरा ठेठ बिहारी बड़े तैश में आ गया। अपने मित्र को सलाह भी दी की जाओ थाने में शिकायत दर्ज करो और उस बेहूदे ,कमीने रिपोर्टर को उसके ऑफिस में चांटा लगा के आओ। मगर वो ऐसा नही कर पायीं। और सब कुछ पूर्ववत् हो गया क्यूंकि हमारी मित्र उस कुत्सित घटना को भूल जाना चाहती थीं। आज मैं मुम्बई में हूँ, नोकरी ऐसी की इन महानुभावों के ही दर्शन होना होता है। बड़ी तकलीफ में हूँ क्यूंकि मुझे सारे पत्रकारों में उसी की शकल दिखती है। लगता है की काश उसने मुझे बता दिया होता तो ..... वैसे मेरे लिए ये इनका चरित्र कोई नया नहीं है क्योँ कि मैने देखा है कि अपने सहकर्मी के प्रति इनके दिल दिमाग मैं क्या क्या होता है, सामने से हटने की बाद उनके शरीर के व्याख्यान अभद्रता और कुन्ठित, शालीनता से परे मुझे हमेशा से ही उलझन मैं डालती रही कि क्या अपने आप को मित्र बताने वाला ऐसा हो सकता है, संभव है सभी जगह ये ही होता होगा मगर मुझे सदा से ही इस पत्रकार शब्द ने ज्यादा परेशान किया है. देश का चौथा स्तंभ..... आम जन कि आवाज..... जनता के लुटेरे को पकड़नेवाला.... भ्रष्टाचार के खिलाफ लिखने वाले सर्वाधिक भ्रष्ट है ये बात ठाकुर जैसे पत्रकार के आने से जनता कि नजर मैं भले ही आती है मगर ना आये तो भी हैं तो सही।
चरित्रहीन.......................?
दयित्वहीन..............?
निष्ठाहीन..............?
कलंकित पत्रकार........
चरित्रहीन.......................?
दयित्वहीन..............?
निष्ठाहीन..............?
कलंकित पत्रकार........
क्या यही खबर है ??????
ख़बर और ख़बरों की दुनिया, बड़ी निराली है, अद्भुत है, क्यूंकि ख़बरनवीस बड़े ताकतवर होते हैं इनका कोई कुछ नही बिगार सकता है क्योँकी ये पुलिस ,प्रशाशन और सत्ता के बड़े करीबी होते हैं। मगर क्या सचमुच में ये ही ख़बरनवीस हैं क्योँकी भाई ये तो लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ हैं। और लोकतंत्र में इन्हें लोक और तंत्र की सीढ़ी कहा जाता है मगर सच में ये इसे सीढ़ी की तरह ही इस्तेमाल करते हैं और अपने आप को ऊपर चढा लेते हैं।
अभी कुछ दिनों पूर्व अपने डॉक्टर साहब का फोन आया की भाई भडासी जरा म्यांमार के आपात पर नजर रखें, तुरंत बाद डॉक्टर साब का पोस्ट भी आ गया। सचमुच म्यांमार की विपदा ह्रदय विदारक है । मैं थोड़ा सा लेट हो गया था सो घर चला गया , सोचा की घर पर इस से अपडेट हो जाऊँगा। घर पंहुचा और न्यूज़ चैनल खोला तो सारे समाचार के चैनल खंगाल डाले कहीं भी मुझे म्यांमार का तूफ़ान नहीं दिखा, मगर अद्भुत सारे चैनल एक्सक्लूसिव खबर ही दिखा रहे थे. अंत में थक के सोने चला गया, सुबह के ११ बजे ;-) (माफ़ करना अपना सुबह इसी समय होता है) उठा चाय ली और अखबार भी. हमारे यहाँ मुम्बई की एक बड़ी अखबार (पता नहीं कैसी बड़ी है राम जाने) "डी एन ए" आती है. सारे पन्ने पलट दिए मगर यहाँ भी ढाक के वो ही तीन पात एक्सक्लूसिव में यहाँ बच्चों की बातें थी जिसे बड़ा ही रोचक बना दिया गया था, हेल्प लाइन पे बच्चे पूछ रहे हैं की आंटी हम कंडोम कैसे उपयोग में लायें। मन खिन्नता से भर गया. समझ में नहीं आ रहा था की ये अखबार है या मैने मनोरंजन की कोई पुस्तक उठा ली है. फिर याद आया अपने दद्दा वाला लेख की कोन ऊपर गया और कोन नीचे. सचमुच अगर समाचार चैनल को दर्शक नहीं मिल रहे तो कारण भी सामने है वैसी ही भाई अंग्रेज के नामुराद वंशजों, तुम्हें समझना चाहिए की पिछडों की हिंदी क्योँ आगे बढ़ रही है, क्योँ उसके पाठक में इजाफा हो रहा है और तुम क्योँ धरातल पर आते जा रहे हो। कहने को अखबार, समाचार चैनल. यानी की समाचारों का जखीरा. अन्दर जाओ तो लोगों को वो मिलता है जो किसी दुसरे बगैर खबर वाले जगह पे देख चुके होते हैं या सुन चुके होते हैं.लानत मलानत ऐसे समाज के, लोकतंत्र के टूटे हुए पाये की।पत्रकारिता और एक्सक्लूसिव के सचित्र उदाहरण ऊपर हैं. अब आप ही बताइए इन्हें लानत मलानत ना दूं तो क्या करूं.
दायित्व किसका जिम्मेदार कौन ?
२००५ की बात है मैं उस समय कोल्हापुर में था, छुट्टी मिली सो घर के लिए चला। ट्रेन पुणे से निकली तो अजीब सी प्रशन्नता से मन पुलकित हो गया, अपने लोगों को देख कर। हमारे बगल में एक बुजुर्ग महिला अपनी बहु और अपने पोते के साथ थी, एक ही मातृभाषा होने के कारण परिचय हो गया और सफर अपनापन के साथ अपने गति से कटने लगी। ट्रेन कब इलाहाबाद पहुंचा पता ही नही चला। यहाँ ट्रेन को कुछ देर रुकना था सो रुकी भी, हमारी बात-चीत जारी रही की दादी माँ का पोता जलेबी के लिए रोने लगा। बहरहाल मैने उनलोगों से कहा की आप रहिये मैं ले आता हूँ क्यूंकि ट्रेन के चलने का भी समय हुआ जा रहा था। मैं जब वापस आया तो मेरे कम्पार्टमेंट का माहोल ही बदला हुआ था। दादी माँ के कान खून से लथपथ थे और गले में गहरे चोट के निशान। मेरी समझ में कुछ नही आया की अभी तो सही था अभी क्या हो गया। खैर पता चला की किसी ने दादी माँ के कान और गले से उनके जेवर खींच लिए। लोगों की अपार भीड़ तमाशबीन बनी हुई। तभी ट्रेन ने सीटी मारी और चल पड़ी मैने जंजीर खींचा और ट्रेन के रुकने के बाद वहाँ मौजूद जी आर पी के सिपाही से कहा की ये दुर्घटना है और इसका ऍफ़ आर आई आप रजिस्टर करो। जवान महोदय का जवाब की ट्रेन अभी यहाँ से चली नही है सो मेरी ड्यूटी शुरू नही हुई है सो मैं कुछ नही कर सकता। मैने अपने कोच कंडक्टर को पकड़ा और सारी बातें बता कर ऍफ़ आर आई दर्ज करने को कहा तो इन साहिबान ने भी मना करते हुए गार्ड महोदय के पास जाने को कहा।दादी माँ के बारे में बताता चलूँ की इनका पुत्र पुणे में रक्षा में किसी उच्च ओहदे पर था और बहन जी का भाई सहारा परिवार के प्रिंट या टी वी में पत्रकार थे। मैने बहन जी से कहा की आप मेरे साथ चलें और हम केस दर्ज करवा सकें वह चलने को तैयार हो गयी। मुझे उनके हिम्मत से बल मिला और हम गार्ड महोदय के पास पहुँचे । सारी बात सुनने के बाद सिवाय इसके कि हमारे गार्ड जी केस दर्ज करते उन्होंने कहा की आप प्लेटफोर्म एक पर जा कर जी आर पी ऑफिस में केस दर्ज करवा दें तब तक मैं ट्रेन को रोकूंगा। उफ्फ्फ़ इलाहबाद का स्टेशन प्लेटफोर्म बदलने में ही मेरी हालत ख़राब हो गयी मगर बहन जी की हिम्मत देख कर हम पहुंच गए जगह पर। आश्चर्य जी आर पी ऑफिस सारी बात सुनने के बाद कहते हैं की ये केस आपको ट्रेन में ही दर्ज कराना होगा यहाँ हम नही कर सकते। मन गुस्से और खिन्नता से भर गया मैने बहन जी से कहा की बेहतर है की हम एक बार स्टेशन अधीक्षक से मिल लें क्यूंकि ट्रेन के भी चले जाने की फिकर थी मगर हमारी बहाना ने दृढ़ता दिखाते हुए कहा की अब तो रपट लिखा के ही जायेंगे। हम पहुँचे स्टेशन अधीक्षक के पास और वस्तुस्थिति बताया तब तक में हमारे बहन जी के सब्र का बांध टूट गया और अधीक्षक महोदय को जिम्मेदारी और जवाबदेही का ऐसा पाठ पढाया की बेचारे बगले झांकते नजर आ रहे थे. बहरहाल स्टेशन अधीक्षक के कारण हमारी रपट लिख ली गए. मेरा नाम गवाह में था जो शायद आज भी इलाहाबाद के इस जी आर पी ऑफिस के फाइल में दर्ज होगा.जब हम वापस आये तो ट्रेन लगी हुई थी और पहले से ही लेट चल रही दो घंटे और लेट हो चुकी थी. दिल में एक सुकून लिए जब अपने प्लेटफोर्म पर पहुंचा तो लोगो की गालियाँ ने स्वागत किया. बड़े आये समाज सेवा करने वाले साले ने दो घंटे ट्रेन यूँ ही लेट करवा दिया। आपको ये कहानी लगी हो परन्तु इस कहानी की सीख मुझे नहीं पता चल पायी। हमारे लिए कोच कंडक्टर, जी आर पी के सिपाही,गार्ड मगर इनका काम, काम के प्रति जवाबदेही और निष्ठा। जिम्मेदार कोन ये लोग या हम. हम याने की वो हम जो ट्रेन के लेट होने से गालियों की बरसात कर रहे थे क्यूंकि उनके साथ दुर्घटना नहीं हुई थी......प्रश्न तो है पर अनुत्तरित....
"लैंगिक विकलांग" नाम का अभिशाप
सोमवार का दिन हमारा रुपेश भाई से भरत-मिलन का दिन था। मैं ये नाम इस लिए दे रहा हूँ क्यूंकि इसे हमारे दादा ने भरत-मिलन कहा। मैं इस मिलन की चर्चा करता शब्दों को ढूंढ रहा था की हमारे भाई ने पहले ही सब कह दिया मगर वो उनके मन की बात थी और मुझे भी अपना अनुभव अपने इस परिवार से साझा करना था। सो कर रहा हूँ।कहने सुनने की बहुत सारी बातें मगर अनुभव ऐसा की मानो सच में वर्षों बाद मिलन। दादा ने जो वर्णन हमरे डॉक्टर साब का किया था उसी के अनुरूप मैं भी जेहन में एक परछाई बना कर चला था। मगर अपने डॉक्टर साब तो बड़े छुपे रुस्तम निकले और मेरी सारी अवधारणा के विपरीत एक अल्ल्हड़, मस्त ,बिंदास मगर इंसानियत और मानवता के संवेदना से लबरेज युवा उर्जावान और भाड़ी के भडासी हमारे डॉक्टर रुपेश। पनवेल से घर तक और वापस घर से वाशी तक एक ऐसा युवा तुर्क मेरे साथ था जिसके बारे में आज के समाज में "कल्पना" नाम दिया जा सकता है।घर पहुँचने पर सर्वप्रथम माता जी के दर्शन और फिर हमारी चर्चा का दौर। मैं मंत्रमुग्ध सा डॉक्टर साहब को सुनता जा रहा था और हमारी चर्चा जो की अविराम है चलती रहेगी. इसी बीच भडास माता हमारी मुनव्वर आपा, अन्नपूर्ण बनकर आयी और चली भी गयी.उनके जाने का कचोट मुझे रहा. बहरहाल हमने साथ भोजन किया और चर्चा "भडास" चालू रहा. मेरे प्रति भाई रुपेश का आत्मविश्वास खुद मेरे कदम डगमगा रहा था मगर भाई की उर्जा ने मुझे भी उर्जा का श्रोत दिया. सच में भडास की सार्थकता पर हमें विचार करना ही होगा की क्या सिर्फ भडास निकालना और इतिश्री। यक्ष प्रश्न तमाम भडासियों के लिए. परन्तु इस मिलन के दौरान जो मेरा अनुभव है वो मुझे कुछ और भी सोचने को प्रेरित करता है।ट्रेन में मुझे एक "लैंगिक-विकलांग" मिली या यूँ कहिये की वो अपना कार्य कर रही थी और इसी दौरान मैं उन से रु-ब-रु हुआ। उनको देखते ही एक पलक मुझे हमारी मनीषा जी का ध्यान आया और मैं उनसे मुखातिब हुआ. थोरा सा परिचय और उन्होने बताया की वो मनीषा जी की बहन हैं और उनकी भी अभिरुचि लिखने में है और वो कोशिश भी कर रही है. डॉक्टर साब ने बताया की वो मोहतरमा भी पढी लिखी स्नातक हैं मगर समाज की मार उनके लिए बस ये ही साधन है. वापस लौटने तक या यूँ कहें की अभी भी मेरे जेहन में ये ही घूम रहा है की एक विकलांग को विकलांग आरक्षण, महिला को महिला आरक्षण, दलित को दलित ऐव मेव कुछ ना कुछ सभी को मगर "लैंगिक विकलांग" नाम का अभिशाप के लिए क्या............???????सच में ये भी तो हमारे समाज का ही एक हिस्सा है, हमारे ही बच्चे हैं तो ये भेद-भाव क्यों। दिल का दर और मानसिक ऊहापोह अपने प्रश्न का जवाब खुद पता नहीं मगर ख्वाहिश इन्हें ससम्मान सम्माज में एक मुकम्मल दर्जा हो। शिक्षित, योग्य,काबिल,लायक तो फिर पर्तिस्पर्धा के पैमाने के खोटेपन का शिकार क्योँ।
दिहाड़ी तीन रूपये......महीने के ९०।
गुरगांव का सिविल हस्पताल के मुर्दा घर का कर्मचारी मामा राज. काम ऐसा की सुन के ही दिल दहल जाए दाम ऐसा की सुन के शर्म आ जाए मगर शर्म किसे आए जो दिहाड़ी दे रहा है..... उसे तो बिल्कुल नही, ये है हमारे बुलंद भारत की तस्वीर। कहने को कागज़ के पन्ने पर हम आसमान से ऊपर जा रहे हैं, बहस करो तो सरकार के साथ मीडिया भी राग अलापती है...... हाँ हाँ हम विकास पर विकास कर रहे हैं । पेश है एक तस्वीर हमारे विकसित भारत की.......ये कहानी है मामा राज की जो गुरगांव के सिविल हस्पताल के मुर्दाघर में मुर्दों को सिलता है। विरासत में मिले इस काम को वो सालों से करता आ रहा है मगर दिहाड़ी अभी भी विरासत वाली ही यानि की ५० पैसे एक मुर्दा के सिलने के बाद और दिन में अगर मामा राज ने ६ मुर्दे सिले तो दिहाड़ी तीन रूपये। मामा राज को इस से कोई शिकायत भी नही है मगर वो चाहता है की अगर एक मुर्दा का उसे ५ रूपये मिले तो उसका दाल रोटी चल जाए क्यूंकि ९० रूपये महीने के मिले तो कोई कैसे दो वक्त की रोटी जुटा सकता है।मुख्य चिकित्सा पदाधिकारी की माने तो उन्होंने मंत्रालय को लिख रखा है और जवाब की प्रतीक्षा में हैं। जब तक मंत्रालय का जवाब ना आ जाए तब तक मामा राज ५० पैसे लेते रहो। और मंत्रालय ...... एक मामा राज के लिए जवाब देने का समय कहाँ है मंत्री महोदय को कौन देखता सुनता है गरीबों की, वैसे पदाधिकारी ये भी मानते हैं की अगर मामा राज काम से इनकार कर दे तो इस काम के लिए कोई भी तैयार ना हो फ़िर भी दिहाड़ी में मन मर्जी देने वाले की। कोई बताये ९० रूपये महीना में मामा राज कैसी अपनी जिन्दगी चलाये।
प्रेमी या मजनू.........पुलिस या गुंडा.
मेरठ काण्ड लोग अभी भूले नहीं हैं जब पुलिस ने प्रेमियौं पर जम कर अत्याचार किए थे । सभी की पिटाई हुई थी और स्वयं सेवी संगठनों को एक मुद्दा मिला था। आज वापस पुलिसिया अत्याचार की कहानी इटावा में दुहराई गयी। एक पार्क में प्रेमी युगलों पर पुलिस ने छापा मार कर तमाम जोडों पर कहर बरपा दिया। समाचार चैनल को ख़बर मिली, अखबारों के लिए भी ख़बर, आपराधिक पुलिस को हाथ साफ करने का मौका और संगठनों के लिए वापस से चिल्लपों करने को मुद्दा।ग़लत सही की परिभाषा से परे पुलिस ने अपना नाजी रवैया फ़िर से बरकरार रखा। आनन फाना में पार्क पर छापा डाल कर युगलों की ना सिर्फ़ जम कर पिटाई की अपितु सब को हाजत में बंद। अब घर वाले छुराते रहें अपने बच्चों को।प्रश्न है की रक्षा करने वाले ही अगर क़ानून की धज्जियाँ उडाएं अपनी व्यक्तिगत मनः स्थिति का निशाना निर्दोष को बनाएं और सारे गुंडों का सरदार बनकर गुंडागर्दी करें तो आम जन कहाँ जाए किसके पास जाए।चलिए आने वाले दिनों में कुछ भी हो मगर फिलहाल तो इन पुलिसिए ने अपनी रंगदारी दिखा ही दी और अपने हाथ पाँव साफ कर ही लिए , वापस कुछ लोगों के लिए ख़बर संगठनों के लिए मुद्दा और फ़िर से जिन्दगी अपने रफ़्तार से। शायद आम-जन की यही कहानी है।