उपद्रव, हिंसा, तोड़फोड़, गैर भारतीय का पर्याय बना महाराष्ट्र।
लोकसत्ता के सम्पादक कुमार केतकर एक बार फ़िर गवाह बने मराठी हिंसक प्रवृति के। केतकर का कुसूर सिर्फ़ इतना था की उन्होंने महाराष्ट्र विधान सभा द्वारा पारित शिवाजी के पुतले सम्बन्धी विषय पर सरकार की खिंचाई कर दी। एक निर्भीक इमानदार पत्रकार ने सच कहा और असभ्यता का पर्याय बना महाराष्ट्र इसे आत्मसात नही कर सका। ये कहानी बार बार दुहराई जा रही है मगर राजनीति पर परवान चढा यह प्रदेश राज्य से लेकर केन्द्र तक सिर्फ़ मुंह ताकने का सिला बन कर रह गया है.
जिस प्रान्त के अर्थव्यवस्था से लेकर जीवनधारा तक पर गैर मराठियों का अधिपत्य है, और नाकाबिलियत ऐसी की स्थापत्य समाज में योगदान शुन्य, विचारधारा का मोहताज ऐसा की सिर्फ़ और सिर्फ़ शिवाजी की दुहाई। मगर शिवा जी का एक ढर्रा अभी भी बरकरार....... हिंसक, और उपद्रव का आलम यानी की महाराष्ट्र।
चाहे गैर मराठी विरोध हो, या अपने अस्तित्व की लड़ाई, या फ़िर शिवाजी...... सभी में होड़। मगर ये होड़ किसका ??? मराठी लोगों के लिए .........महाराष्ट्र के लिए.......विकाश के लिए.......या फ़िर अपने स्वार्थ के लिए। आश्चर्य की थैले के सभी एक जैसे ही चट्टे बट्टे। तो फ़िर प्रश्न की क्या मराठी मानुष इन से अनजान हैं... या फ़िर वह इस स्पर्धा वाले दौर में नाकाबिल कि स्पर्धा के बजाये उपद्रव इन्हें सबसे आसान तरीका लगता है। उत्तर जो भी हो मगर हिन्दुस्तान की इस सरजमीं पर महाराष्ट्र निसंदेह पहले मराठी का ही है फ़िर बाहरियों का, मगर प्रतियोगिता में अपनी उपयोगिता साबित करना इनके लिए चुनौती।
फ़ोटो :-
1) लोकसत्ता के सम्पादक कुमार केतकर
2) केतकर के आवास के बाहर
फ़ोटो साभार:- The Hindu, Josh18.com
hi rajneesh now i know u....it feels better...nice issue u hve taken up....hum apne mulk ko apni hi sankeerna soch se baant dete hain.... baahari taakaton se zyada khatra bheetar se hi aata hai... ye sachmuch dukhad hai aur mai khush hun ki aapne apni aawaaz hindustan ki ekta k liye uthai, aawaam k liye uthai... bahut badhai....
ReplyDeleteजायज सवाल और बड़ा बबाल. लिखते रहिये. यूं तो हम बतौर पाठक जनसत्ता के आशिक ठहरे. आपको पढ़ना बहुत अच्छा लगा. गहरी पैठ के साथ आगे भी उम्मीद है. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteसाथ ही इक बात और जो कह ही देन तो दिल हल्का हो जाए; बात इतनी बड़ी भी नहीं मगर दिल में नासूर बनते देर कहाँ लगती है "सागर'. कृपया वाक्य के बाद बे-ज़रूरतमंद (...............) न लगाएं.
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शुक्रिया.
उल्टा तीर
पत्रकारों का अपना जगत है वो है स्वजगत. दुनिया की duniya dari aur patrakarita unke liye charitramapak ka ek hissa hai jo unke wajood ko unka na hone ka aabhaash bhi dilati hai aur wo hai ki is pawitra peshe ko apna hathiyaar banaye baithe hai, Naa jaane kyo lagta hai ki bhatakate samaaj mein sabse upar mera apna patrkar samaj hai . फिर भी नमस्कार उन पत्रकार समाज के दरोम्दारो को जो एक दुनिया बनने की सोच लेकर आगे बढ़ रहे है जो दुनिया हो ऐसी की उनकी कलम के जोबानी आगे बढे.
ReplyDeleteसहृदय धन्यवाद आपको जो आपने एक माध्यम चुना लोगो को जागृत करने का ..........................शायद इस सुसुप्ता अवस्था में जीवित अपना समाज जागे और आगे कुछ बढ़कर सोचे लोगो के लिए सर्वहित में सर्व्सम्प्र्दाय के लिए.......