आधुनिक जगतमें संगणकोंने एक अभूतपूर्व क्रांति पैदा की है। ज्ञान, वैज्ञानिकता और प्रगती के हर शिखर के लिय़े प्रयुक्त हर सीढीमें संगणक-तंत्र अत्यावश्यक है। भाषाई विकास भी इसके बिना असंभव है – यह बोध तो कई चिन्तकोंमें आ गया है परन्तु संगणक-लेखन में प्रमाणीकरण एवं समन्वय दोनोंके अभावमें भारतीय भाषाओंकी समग्र एकात्मताके और सांस्कृतिक एकतापर जो बडा संकट मंडरा रहा है उसकी ओर अभीतक किसीने ध्यान नही दिया है।
इसे हम यों समझ सकते हैं कि विश्वमें भाषाएँ और लिपियाँ कई हैं लेकिन वर्णमालाएँ केवल चार है ---
(1) ब्राह्मी – जिससे देवनागरी (संस्कृत), अन्य सारी भारतीय लिपियाँ, साथही सिंहली, थाई, तिब्बती, इंडोनेशियन और मलेशियन लिपियाँ बनीं।
(2) चीनी – जिससे चीनी, जपानी एवं कोरियाई लिपियाँ बनीं।
(3) फारसी – जिससे फारसी, अरेबिक एवं ऊर्दू लिपियाँ बनीं।
(4) ग्रीक, लैटिन रोमन व सिरिलीक – जिनमें आपसमें थोडासा अन्तर है और जिनसे तमाम पश्चिमी एवं पूर्वी युरोपीय लिपियाँ बनीं।
प्रत्येक वर्णमालामें अक्षरोंका वर्णक्रम सुनिश्चित है। भारतकी सभी भाषाओंका वर्णक्रम एक ही है औऱ उसका ढाँचा ध्वन्यात्मक है। संगणकीय लिपी-प्रमाणक बनाते समय यदि इस विशेषताको टिकाये रखकर तथा उसका लाभ उठाते हुए हमने प्रमाणक बनाये तो हमारी सांस्कृतिक एकात्मताकी अंतर्निहित शक्ति एवं वैज्ञानिकताके कारण हम लम्बी छलाँग लगा सकते हैं अन्यथा इसको नजरअंदाज कर हम अपनी एकात्मिक सांस्कृतिक धरोहरको एक झटकेसे गँवा भी सकते हैं। आज हम दूसरे खतरेके बगलमें खडे हैं जिसके प्रति हमें शीघ्रतासे चेतना होगा।
लीना महेंडाले
लीना जी ने सब कुछ सत्य कहा है किन्तु कम्प्यूटर से खतरा कैसे है, यह स्पष्त नहीं कर पायीं हैं।
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