भारत की 74 करोड़ आबादी रोज़ाना प्रति व्यक्ति केवल 20 रूपये में जीवनयापन करती है.....
ये भी एक आंकड़ा ही है वरना हमारे नंगे-भूखे देश में इतने सारे मोबाइल प्रयोक्ता कहां से उपज गये,इस समितियों की रिपोर्ट्स भी शायद स्वप्न या त्रिकाल दर्शन पर आधारित होती होगी। सत्य है कि अमीर आदमी दिन ब दिन अमीर और गरीब आदमी जस का तस बना है लेकिन इस बात को कह देना कि कुछ प्रगति नहीं हुई है ये पूर्णतया सत्य नहीं है। मुझे याद है मेरा बचपन जब हमारे गांव के चमरटोला के सभी लोग बिना चप्पल के थे लेकिन आज उनके बच्चे हमारी तरह आपके साथ खड़े हो पा रहे हैं, गांव में सुधार हुआ है। सच तो ये है कि बकौल डा.रूपेश श्रीवास्तव किसी भी देश को राष्ट्र बनने में जितना समय लगता है उस लिहाज से अभी हमारे देश में शैशवावस्था चल रही है। इस अवस्था को परिपक्व होने में अभी कई दशक और लगने वाले हैं जब जनता जाति धर्म क्षेत्र आदि के बचपने से उबर कर और रहनुमाई करने वाले अपने निजी लालचों से उबर कर सही अर्थ में लोकतंत्र को पुष्ट कर पाएंगे। सही शिक्षा लोगों तक पहुंच पाएगी। अभी तो हमारे देश में आप सब देख रहे हैं कि शिक्षा की नीति पर ही प्रयोग चलते रहते हैं, कपिल सिब्बल का हालिया प्रयोग इसका उदाहरण है।
दीन सबन को लखत है, दीनहि लखै न कोय,
जो रहीम दीनहिं लखै, दीन-बंधु सम होय।
जिस दिन सारे लोग दीन और दीनबंधु के बीच की लकीर को मिटा पाने योग्य परिपक्व हो जाएंगे उस दिन सब सही होगा। ये एक आदर्श परिस्थिति की परिकल्पना हो सकती है लेकिन ऐसा होने में बहुत समय लगेगा ये प्रक्रिया बहुत मंथर गति से होने वाली है पर हो रही है।
जय जय भड़ास
nice
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