हाल में 5 अगस्त 2009 को बिल क्लिंटन उत्तर कोरिया से दो अमेरिकी पत्रकारों को रिहा करवा के अपने निजी चार्टर्ड प्लेन में बिठाकर अमेरिका ले आये। ये चीनी-अमेरिकी और दक्षिण कोरियाई-अमेरिकी मूल के पत्रकार मार्च 2009 में चीन की सीमा के नज़दीक उत्तर कोरिया में शरणार्थियों की स्थिति पर भ्रामक रिपोर्टिंग करने के आरोप में गिरफ़्तार किये गये थे। क्लिंटन ने उक्त दोनों पत्रकारों की रिहाई के लिए उत्तर कोरिया के सर्वोच्च नेताओं से विनती की और उत्तर कोरिया के राजनीतिक नेतृत्व ने भी अपनी मानवीयता प्रदर्शित करते हुए उनकी 12 साल की सश्रम सज़ा माफ कर उन्हें क्लिंटन को सौंप दिया। ओबामा प्रशासन ने इस कार्य से अपने आपको पूरी तरह अलग बताते हुए यह बयान जारी किया कि यह बिल क्लिंटन का स्वप्रेरित मानवीय कदम था। इसे साबित करने के लिए ये तर्क भी दिया गया कि क्लिंटन उत्तरी कोरिया सरकारी हवाई जहाज से नहीं बल्कि निजी चार्टर्ड हवाई जहाज से गये थे। हालाँकि उत्तर कोरिया की सरकारी समाचार एजेंसी ने यह ख़बर दी कि क्लिंटन ओबामा प्रशासन का शांति संदेश भी लेकर आये थे।
प्रसंगवश कैलेंडर में 6 अगस्त 1945 हिरोशिमा पर अमेरिकी परमाणु बम गिराये जाने की भी तारीख है। सन 1945 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रुमैन ने इतिहास के सबसे क्रूरतम कारनामे को अंजाम दिया था और 2009 की 5 अगस्त को निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने शांति का कारनामा करने का बीड़ा उठाया। इसे इतिहास का प्रायश्चित मानने वाले वे भोले जानकार ही होंगे जिन्हें उत्तर कोरिया के मई में किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिकी आकाओं के दाँतों की किटकिटाहट नहीं सुनायी दी होगी। अफग़ानिस्तान, इराक़, नेपाल, लेबनान और फ़िलिस्तीन में तमाम पत्रकारों और मानवाधिकारवादी कार्यकत्र्ताओं की हत्याओं से जिनके कानों पर जूँ नहीं रेंगी, उनका मन अचानक ही अगर उत्तर कोरिया में गिरफ़्तार इन दो पत्रकारों के लिए द्रवित होने लगे तो शक़ होना लाजिमी है।
मौजूदा अंतरराष्ट्रीय हालातों को देखते हुए ये कयास लगाना मुष्किल नहीं कि क्लिंटन की यात्रा उत्तरी कोरिया व अमेरिका के बीच पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ते जा रहे आण्विक तनाव को टालने के मकसद से की गयी थी।
ज़ाहिर है कि महज 2 करोड़ की कुल आबादी और अमेरिका के मुकाबले शायद 1 प्रतिषत से भी कम परमाणु क्षमता वाले उत्तरी कोरिया से दोस्ती बढ़ाने में अमेरिका को विष्व शांति का ख़याल तो नहीं ही रहा होगा। उत्तरी कोरिया की राजधानी प्योंगयांग के हवाई अड्डे पर क्लिंटन की अगवानी के लिए मौजूद लोगों में किम-क्ये क्वान भी थे जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आणविक मसलों की वार्ताओं में उत्तरी कोरिया के प्रमुख रणनीतिकार थे। क्लिंटन की इस यात्रा के पीछे एक कूटनीति ये भी हो सकती है कि शांतिपूर्ण भंगिमाओं के ज़रिये पूर्वी एषिया से उभरी इस नयी चुनौती को कम से कम फिलवक़्त एक तरफ़ से टाला जा सके और पूरा ध्यान ईरान पर लगाया जा सके।
इराक़ की जंग ने अमेरिकी रणनीतिकारों को ये तो समझा ही दिया है कि हमेशा जंग शुरू करने वाले के हाथ में जंग ख़त्म करने का भी माद्दा ज़रूरी़ नहीं होता। सद्दाम हुसैन को मारने और इराक-अफगानिस्तान को मलबे में बदल डालने के बावजूद, या इज़रायल के ज़रिये हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का क़त्लेआम करवाने के बावजूद इन जगहों पर जंग ख़त्म नहीं हुई, और अमेरिका के प्रति ज़हर वहाँ की पीढ़ियों की नस-नस में उसी तरह समा गया है जिस तरह वहाँ की हवाओं में बारूद। दरअसल अमेरिका को ये सच्चाई समझ आ रही है कि तमाम हथियारों के बावजूद जंग में जीत इतनी आसान नहीं रह गयी है, खासतौर पर जब बेलगाम अमेरिकी दादागिरी के ख़िलाफ़ सारी दुनिया में विरोध बढ़ता जा रहा है और लाखों- करोड़ों लोग अपनी जान देकर भी अपनी आज़ादी बचाये रखना चाहते हों।
काफी मुमकिन है कि ईरान पर हमले की रणनीति बनाते समय अमेरिका को उत्तर कोरिया में एक और मोर्चा खोलना मुश्किल लग रहा हो और इसीलिए फिलहाल अमेरिकी रणनीति किसी तरह उत्तर कोरिया को शांत रखने की होगी। ऐसे में जब अमेरिका के सामने तेल की लूट की लड़ाई में अगला निषाना ईरान है तो वो ये खतरा नहीं उठाना चाहेगा कि उत्तरी कोरिया की शक्ल में एक दूसरा मोर्चा भी खुल जाए। इसलिए उत्तरी कोरिया के मसले को कम से कम तब तक टालने की अमेरिका की कोशिश रहेगी जब तक वो ईरान से न निपट ले।
प्रसंगवश कैलेंडर में 6 अगस्त 1945 हिरोशिमा पर अमेरिकी परमाणु बम गिराये जाने की भी तारीख है। सन 1945 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रुमैन ने इतिहास के सबसे क्रूरतम कारनामे को अंजाम दिया था और 2009 की 5 अगस्त को निवर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति क्लिंटन ने शांति का कारनामा करने का बीड़ा उठाया। इसे इतिहास का प्रायश्चित मानने वाले वे भोले जानकार ही होंगे जिन्हें उत्तर कोरिया के मई में किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद अमेरिकी आकाओं के दाँतों की किटकिटाहट नहीं सुनायी दी होगी। अफग़ानिस्तान, इराक़, नेपाल, लेबनान और फ़िलिस्तीन में तमाम पत्रकारों और मानवाधिकारवादी कार्यकत्र्ताओं की हत्याओं से जिनके कानों पर जूँ नहीं रेंगी, उनका मन अचानक ही अगर उत्तर कोरिया में गिरफ़्तार इन दो पत्रकारों के लिए द्रवित होने लगे तो शक़ होना लाजिमी है।
मौजूदा अंतरराष्ट्रीय हालातों को देखते हुए ये कयास लगाना मुष्किल नहीं कि क्लिंटन की यात्रा उत्तरी कोरिया व अमेरिका के बीच पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ते जा रहे आण्विक तनाव को टालने के मकसद से की गयी थी।
ज़ाहिर है कि महज 2 करोड़ की कुल आबादी और अमेरिका के मुकाबले शायद 1 प्रतिषत से भी कम परमाणु क्षमता वाले उत्तरी कोरिया से दोस्ती बढ़ाने में अमेरिका को विष्व शांति का ख़याल तो नहीं ही रहा होगा। उत्तरी कोरिया की राजधानी प्योंगयांग के हवाई अड्डे पर क्लिंटन की अगवानी के लिए मौजूद लोगों में किम-क्ये क्वान भी थे जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आणविक मसलों की वार्ताओं में उत्तरी कोरिया के प्रमुख रणनीतिकार थे। क्लिंटन की इस यात्रा के पीछे एक कूटनीति ये भी हो सकती है कि शांतिपूर्ण भंगिमाओं के ज़रिये पूर्वी एषिया से उभरी इस नयी चुनौती को कम से कम फिलवक़्त एक तरफ़ से टाला जा सके और पूरा ध्यान ईरान पर लगाया जा सके।
इराक़ की जंग ने अमेरिकी रणनीतिकारों को ये तो समझा ही दिया है कि हमेशा जंग शुरू करने वाले के हाथ में जंग ख़त्म करने का भी माद्दा ज़रूरी़ नहीं होता। सद्दाम हुसैन को मारने और इराक-अफगानिस्तान को मलबे में बदल डालने के बावजूद, या इज़रायल के ज़रिये हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का क़त्लेआम करवाने के बावजूद इन जगहों पर जंग ख़त्म नहीं हुई, और अमेरिका के प्रति ज़हर वहाँ की पीढ़ियों की नस-नस में उसी तरह समा गया है जिस तरह वहाँ की हवाओं में बारूद। दरअसल अमेरिका को ये सच्चाई समझ आ रही है कि तमाम हथियारों के बावजूद जंग में जीत इतनी आसान नहीं रह गयी है, खासतौर पर जब बेलगाम अमेरिकी दादागिरी के ख़िलाफ़ सारी दुनिया में विरोध बढ़ता जा रहा है और लाखों- करोड़ों लोग अपनी जान देकर भी अपनी आज़ादी बचाये रखना चाहते हों।
काफी मुमकिन है कि ईरान पर हमले की रणनीति बनाते समय अमेरिका को उत्तर कोरिया में एक और मोर्चा खोलना मुश्किल लग रहा हो और इसीलिए फिलहाल अमेरिकी रणनीति किसी तरह उत्तर कोरिया को शांत रखने की होगी। ऐसे में जब अमेरिका के सामने तेल की लूट की लड़ाई में अगला निषाना ईरान है तो वो ये खतरा नहीं उठाना चाहेगा कि उत्तरी कोरिया की शक्ल में एक दूसरा मोर्चा भी खुल जाए। इसलिए उत्तरी कोरिया के मसले को कम से कम तब तक टालने की अमेरिका की कोशिश रहेगी जब तक वो ईरान से न निपट ले।
विनीत तिवारी
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