इस बात में कोई दो राय नहीं है कि विज्ञापन व्यापार का साधन है। लेकिन ये भी बात किसी समाचार पत्र,पत्रिका के नीतिगत आदर्शों को दर्शाती है कि किस तरह के विज्ञापन स्वीकार करे जा रहे हैं। इस नीति से ये भी साफ़ पता चलता है कि क्या सचमुच कोई सामाजिक सरोकार है या मात्र लालची लालाजी की दुकान है। यदि किसी स्वास्थ्य पत्रिका में सिगरेट, शराब, गुटका आदि के विज्ञापन धड़ल्ले से छप रहे हों तो आप क्या सोचेंगे????
प्रस्तुत है एक ज्वलंत नमूना मुंबई से प्रकाशित होने वाले एक उर्दू दैनिक का, जो कि अपनी विज्ञापन नीति से जो संदेश अपने पाठकों को दे रहा है वह कुछ इस तरह है कि यदि इंकलाब लाना है तो दिन की शुरूआत कैसे करें और दिन का अंत रात में कैसे करें। अखबार का नाम है इंकलाब यानि कि क्रांति प्रेरित परिवर्तन जो कि भड़ास कुंठित और पगलाए बौराए नजरिए से देखने पर दिखता है कि उर्दू पाठकों यदि देश और समाज में क्रान्ति लानी है तो पहले "लिप्टन चाय" से मिलते-जुलते नाम वाली एक सस्ती चाय पीजिये बस इंकलाब शुरू हो गया पहले अक्षर "अलिफ़" के साथ और मर्दाना ताकत के लिये पुरुषांग में तेल लगा कर रात्रि के कार्य को पुरसुकून अंजाम देते हुए उर्दू के अक्षर "बे" केसाथ इंकलाब को अंजाम तक पहुंचा दीजिये। अगले दिन का जीवन इसी तरह से फिर जीने के लिये। धन्य हैं ऐसे प्रकाशक और सम्पादक.......जय जय भड़ास
very keen observation ... kinda hilaious, the masthed of the newpaper :)
ReplyDeletePS: hvnt heard from u at my blog for a long time now.. do drop by
ये मुंबई के ही अख़बारों की करतूत नहीं ऐसा तो हर वो खबरिया माध्यम कर रहा है जो अपने आपको नंबर एक बोलता है और ये तो बेचारे अपनी दाल रोटी चला रहे हैं जहाँ तक बात इन्किलाब की है तो ये तो पिछले ६२ सालों से चला आ रहा है पर अब लगता है आपकी नज़र ज़रूर लग जायेगी.
ReplyDeleteहाँ आपकी मेल अभी मिली नहीं मुझे.
आपका हमवतन भाई गुफरान.
छाया जी, आपकी भाषा मे करी गई तारीफ़ भी समझ मे आना मुश्किल है :)
ReplyDeleteगुफरान भाई, ये इस नीति से दाल रोटी नही बल्कि दारु मुर्गा चला रहे है! और हमारी नजर उनके दारु मुर्गे पर है!
जय जय भड़ास!