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लो क सं घ र्ष !: कैसे सैनिटेशनयुक्त हो यह देश ?
यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजी रिपोर्ट (Saddest stink in the world, TheTelegraph, 16 Oct 2009) इस बात का विधिवत खुलासा करती है कि किस तरह दुनिया भर में खुले में शौच करनेवाले लोगों की 120 करोड़ की संख्या में 66.5 करोड़ की संख्या के साथ हिन्दोस्तां ‘अव्वल नम्बर’ पर है। प्रस्तुत रिपोर्ट अनकहे हिन्दोस्तां की हुकूमत द्वारा अपने लिए निर्धारित इस लक्ष्य की लगभग असम्भव्यता की तरफ इशारा करती है कि वह वर्ष 2012 तक खुले में शौच की प्रथा को समाप्त करना चाहती है। लोगों को याद होगा कि अप्रैल 2007 में यूपीए सरकार के प्रथम संस्करण में ही ग्रामीण विकास मंत्रालय ने यह ऐलान किया था कि हर घर तक टायलेट पहुंचा कर वह पूर्ण सैनिटेशन के लक्ष्य को 2012 तक हासिल करेगी।
अपने पड़ोसी देशों के साथ भी तुलना करें तो हिन्दोस्तां की हालत और ख़राब दिखती है। वर्ष 2001 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के विकास कार्यक्रम के तहत मानवविकास सूचकांक की रिपोर्ट ने इस पर बखूबी रौशनी डाली थी। अगर स्थूल आंकड़ों के हिसाब से देखें तो हिन्दोस्तां में 1990 में जहां 16 फीसदी आबादी तक सैनिटेशन की व्यवस्था थी वहीं 2000 आते आते यह आंकड़ा आबादी के महज 28 फीसदी तक ही पहुंच सका था। पाकिस्तान, बांगलादेश और श्रीलंका जैसे अपने पड़ोसियों के साथ तुलना करें तो यह आंकड़ें थे 36 फीसदी से 62 फीसदी तक ; 41 फीसदी से 48 फीसदी तक तथा 85 फीसदी से 94 फीसदी तक।
यह अकारण नहीं मलविसर्जन/सैनिटेशन की ख़राब व्यवस्था, पीने के अशुद्ध पानी, और हाथों के सही ढंग से न धो पाने से अधिक गम्भीर शक्ल धारण करने वाली दस्त/डायरिया जैसी बीमारी से हर साल दुनिया भर में मरनेवाले 15 लाख बच्चों में से तीन लाख 60 हजार भारत के होते हैं। (विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की एक अन्य ताजा रिपोर्ट से)
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि खुले में मलविसर्जन में भारत को हासिल ‘अव्वल’ नम्बर क्या अत्यधिक आबादी के चलते है ? भारत से अधिक आबादी वाले चीन के साथ तुलना कर हम इसे जान सकते हैं। मालूम हो कि यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की वही रिपोर्ट बताती है कि खुले में मलविसर्जन करनेवालों की तादाद चीन में है महज 3 करोड 70 लाख है और दस्त/डायरिया से मरनेवाले बच्चों की संख्या है चालीस हजार।
सैनिटेशन जिसे पिछले दिनों एक आनलाइन पोल में विगत डेढ़ सौ से अधिक साल के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सकीय प्रगति कहा गया था, उसके बारे में हमारे जैसे मुल्क की गहरी उपेक्षा क्यों ? दिलचस्प है कि उपरोक्त मतसंग्रह में 11 हजार लोगों की राय ली गयी थी, जिसने एण्टीबायोटिक्स, डीएनए संरचना और मौखिल पुनर्जलीकरण तकनीक (ओरल रिहायडेªशन थेरेपी) आदि सभी को सैनिटेशन की तुलना में कम वोट मिले थे। (टाईम्स न्यूज नेटवर्क, 22 जनवरी 2007)।
क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि दरअसल सैनिटेशन की सुविधा महज एक चैथाई आबादी तक पहुंचने का कारण भारतीय समाज में जड़मूल वर्णमानसिकता है, जिसके चलते प्रबुद्ध समुदाय भी इसके बारे में मौन अख्तियार किए हुए हैं। इसका एक प्रतिबिम्बन आज भी बेधड़क जारी सर पर मैला ढोने की प्रथा में मिलता है, जिसमें लगभग आठ लाख लोग आज भी मुब्तिला हैं जिनमें 95 फीसदी महिलाएं हैं और जो लगभग स्वच्छकार समुदाय कही जानेवाली वाल्मीकि, चूहड़ा, मुसल्ली आदि जातियों से ही आते हैं। और यह स्थिति तब जबकि वर्श 1993 में ही इस देश की संसद ने एक कानून पूर्ण बहुमत से पारित करवाया था जिसके अन्तर्गत मैला ढोने की प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवाया है अर्थात इसमें शामिल लोगों को या काम करवानेवालों को दण्ड दिया जा सकता है। आखिर कितने सौ करोड़ रूपयों की आवश्यकता होगी ताकि आबादी के इस हिस्से को इस अमानवीय, गरिमाविहीन काम से मुक्ति दिलायी जाए।
दरअसल शहर में सैनिटेशन एवम सीवेज की आपराधिक उपेक्षा की जड़ें हिन्दु समाज में मल और ‘प्रदूषण’ के अन्तर्सम्बन्ध में तलाशी जा सकती हैं, जो खुद जाति विभेद से जुड़ा मामला है। सभी जानते हैं कि मानव मल तमाम रोगों के सम्प्रेषण का माध्यम है। जाहिर है मानव मल के निपटारे के उचित इन्तज़ाम होने चाहिए। दूसरी तरफ भारत की आबादी के बड़े हिस्से में मल को अशुद्ध समझा जाता है और उसकी वजह से उससे बचने के उपाय ढूंढे जाते हैं। मलविसर्जन के बाद नहाना एक ऐसाही उपाय है। वर्णसमाज में तमाम माता-पिता अपनी सन्तानों को यही शिक्षा देते हैं कि वे मलविसर्जन के बाद ही नहाएं। और चंूकि मल से बचना मुश्किल है इसलिए इस ‘समस्या’ का निदान ‘छूआछूत’ वाली जातियों में ढंूढ लिया गया है जो हाथ से मल को हटा देंगी। कुल मिला कर देखें तो मैला हटाने से लेकर सैनिटेषन की कमी का खामियाजा भुगतने का काम चन्द दलित जातियों को ही झेलना पड़ता है, इसलिए शेष प्रबुद्ध समुदाय को इनकी कमी का कोई खामियाजा भुगतना नहीं पड़ता और समय बदलने के बाद भी यथास्थिति बनी रहती है।
एक तरह से कह सकते हैं कि सैनिटेशन की कमी के चलते अचानक हैजा या ऐसी ही अन्य बीमारियों की जकड़ में तमाम लोग आ सकते हैं। इसकी वजह यह है कि भारत में इस कमी को दूर करने के नाम पर लोग खुली नालियों को टायलेटों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। और सिर्फ शहर की ही बात करें तो सभी शहरों में एकत्रित जल-मल का 70 फीसदी हिस्सा ठीक से डिस्पोजल न होने के कारण रिस-रिस कर नीचे पहुंचता है और जमीनी पानी को उल्टे प्रदूषित कर रहा है।
सैनिटेशन के मामले में आधुनिक भारत की दुर्दशा के बरअक्स मोहनजोदारो एवं हरप्पा संस्कृतियों अर्थात सिन्धु घाटी की सभ्यता का अनुभव दिखता है। सभी जानते हैं सिंधु घाटी के तमाम शहर उस दौर में शहर नियोजन प्रणाली का उत्कृष्ट नमूना थे। इनमें सबसे अधिक सराही जाती रही है यहां मौजूद भूमिगत डेªनेज (निकासी) प्रणाली। एक अन्य विशिष्टता रही है कि आम लोगों के घरों में भी स्नानगृहों का इन्तज़ाम था और ऐसे निकासी के इन्तज़ाम थे जिसके तहत घर का तमाम अवशिष्ट एवं गन्दा पानी नीचे अवस्थित भूमिगत जारों में पहुंचाया जाता था।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस सभ्यता में आज से लगभग पांच हजार साल पहले आम आदमी को केन्द्र में रख कर जल-मल निकासी और सार्वजनिक स्वास्थ्य की योजना को वरीयता मिली थी, वहीं आज हम बहुत विपरीत स्थिति पा रहे हैं।
सुभाष गाताडे,
एच 4 पुसा अपार्टमेण्ट, रोहिणी सैक्टर 15, दिल्ली 110089
लो क सं घ र्ष !: कैसे सैनिटेशनयुक्त हो यह देश ?
यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक ताजी रिपोर्ट (Saddest stink in the world, TheTelegraph, 16 Oct 2009) इस बात का विधिवत खुलासा करती है कि किस तरह दुनिया भर में खुले में शौच करनेवाले लोगों की 120 करोड़ की संख्या में 66.5 करोड़ की संख्या के साथ हिन्दोस्तां ‘अव्वल नम्बर’ पर है। प्रस्तुत रिपोर्ट अनकहे हिन्दोस्तां की हुकूमत द्वारा अपने लिए निर्धारित इस लक्ष्य की लगभग असम्भव्यता की तरफ इशारा करती है कि वह वर्ष 2012 तक खुले में शौच की प्रथा को समाप्त करना चाहती है। लोगों को याद होगा कि अप्रैल 2007 में यूपीए सरकार के प्रथम संस्करण में ही ग्रामीण विकास मंत्रालय ने यह ऐलान किया था कि हर घर तक टायलेट पहुंचा कर वह पूर्ण सैनिटेशन के लक्ष्य को 2012 तक हासिल करेगी।
अपने पड़ोसी देशों के साथ भी तुलना करें तो हिन्दोस्तां की हालत और ख़राब दिखती है। वर्ष 2001 में संयुक्त राष्ट्रसंघ के विकास कार्यक्रम के तहत मानवविकास सूचकांक की रिपोर्ट ने इस पर बखूबी रौशनी डाली थी। अगर स्थूल आंकड़ों के हिसाब से देखें तो हिन्दोस्तां में 1990 में जहां 16 फीसदी आबादी तक सैनिटेशन की व्यवस्था थी वहीं 2000 आते आते यह आंकड़ा आबादी के महज 28 फीसदी तक ही पहुंच सका था। पाकिस्तान, बांगलादेश और श्रीलंका जैसे अपने पड़ोसियों के साथ तुलना करें तो यह आंकड़ें थे 36 फीसदी से 62 फीसदी तक ; 41 फीसदी से 48 फीसदी तक तथा 85 फीसदी से 94 फीसदी तक।
यह अकारण नहीं मलविसर्जन/सैनिटेशन की ख़राब व्यवस्था, पीने के अशुद्ध पानी, और हाथों के सही ढंग से न धो पाने से अधिक गम्भीर शक्ल धारण करने वाली दस्त/डायरिया जैसी बीमारी से हर साल दुनिया भर में मरनेवाले 15 लाख बच्चों में से तीन लाख 60 हजार भारत के होते हैं। (विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ की एक अन्य ताजा रिपोर्ट से)
कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि खुले में मलविसर्जन में भारत को हासिल ‘अव्वल’ नम्बर क्या अत्यधिक आबादी के चलते है ? भारत से अधिक आबादी वाले चीन के साथ तुलना कर हम इसे जान सकते हैं। मालूम हो कि यूनिसेफ-विश्व स्वास्थ्य संगठन की वही रिपोर्ट बताती है कि खुले में मलविसर्जन करनेवालों की तादाद चीन में है महज 3 करोड 70 लाख है और दस्त/डायरिया से मरनेवाले बच्चों की संख्या है चालीस हजार।
सैनिटेशन जिसे पिछले दिनों एक आनलाइन पोल में विगत डेढ़ सौ से अधिक साल के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण चिकित्सकीय प्रगति कहा गया था, उसके बारे में हमारे जैसे मुल्क की गहरी उपेक्षा क्यों ? दिलचस्प है कि उपरोक्त मतसंग्रह में 11 हजार लोगों की राय ली गयी थी, जिसने एण्टीबायोटिक्स, डीएनए संरचना और मौखिल पुनर्जलीकरण तकनीक (ओरल रिहायडेªशन थेरेपी) आदि सभी को सैनिटेशन की तुलना में कम वोट मिले थे। (टाईम्स न्यूज नेटवर्क, 22 जनवरी 2007)।
क्या यह कहना उचित नहीं होगा कि दरअसल सैनिटेशन की सुविधा महज एक चैथाई आबादी तक पहुंचने का कारण भारतीय समाज में जड़मूल वर्णमानसिकता है, जिसके चलते प्रबुद्ध समुदाय भी इसके बारे में मौन अख्तियार किए हुए हैं। इसका एक प्रतिबिम्बन आज भी बेधड़क जारी सर पर मैला ढोने की प्रथा में मिलता है, जिसमें लगभग आठ लाख लोग आज भी मुब्तिला हैं जिनमें 95 फीसदी महिलाएं हैं और जो लगभग स्वच्छकार समुदाय कही जानेवाली वाल्मीकि, चूहड़ा, मुसल्ली आदि जातियों से ही आते हैं। और यह स्थिति तब जबकि वर्श 1993 में ही इस देश की संसद ने एक कानून पूर्ण बहुमत से पारित करवाया था जिसके अन्तर्गत मैला ढोने की प्रथा को गैरकानूनी घोषित करवाया है अर्थात इसमें शामिल लोगों को या काम करवानेवालों को दण्ड दिया जा सकता है। आखिर कितने सौ करोड़ रूपयों की आवश्यकता होगी ताकि आबादी के इस हिस्से को इस अमानवीय, गरिमाविहीन काम से मुक्ति दिलायी जाए।
दरअसल शहर में सैनिटेशन एवम सीवेज की आपराधिक उपेक्षा की जड़ें हिन्दु समाज में मल और ‘प्रदूषण’ के अन्तर्सम्बन्ध में तलाशी जा सकती हैं, जो खुद जाति विभेद से जुड़ा मामला है। सभी जानते हैं कि मानव मल तमाम रोगों के सम्प्रेषण का माध्यम है। जाहिर है मानव मल के निपटारे के उचित इन्तज़ाम होने चाहिए। दूसरी तरफ भारत की आबादी के बड़े हिस्से में मल को अशुद्ध समझा जाता है और उसकी वजह से उससे बचने के उपाय ढूंढे जाते हैं। मलविसर्जन के बाद नहाना एक ऐसाही उपाय है। वर्णसमाज में तमाम माता-पिता अपनी सन्तानों को यही शिक्षा देते हैं कि वे मलविसर्जन के बाद ही नहाएं। और चंूकि मल से बचना मुश्किल है इसलिए इस ‘समस्या’ का निदान ‘छूआछूत’ वाली जातियों में ढंूढ लिया गया है जो हाथ से मल को हटा देंगी। कुल मिला कर देखें तो मैला हटाने से लेकर सैनिटेषन की कमी का खामियाजा भुगतने का काम चन्द दलित जातियों को ही झेलना पड़ता है, इसलिए शेष प्रबुद्ध समुदाय को इनकी कमी का कोई खामियाजा भुगतना नहीं पड़ता और समय बदलने के बाद भी यथास्थिति बनी रहती है।
एक तरह से कह सकते हैं कि सैनिटेशन की कमी के चलते अचानक हैजा या ऐसी ही अन्य बीमारियों की जकड़ में तमाम लोग आ सकते हैं। इसकी वजह यह है कि भारत में इस कमी को दूर करने के नाम पर लोग खुली नालियों को टायलेटों के रूप में इस्तेमाल करते हैं। और सिर्फ शहर की ही बात करें तो सभी शहरों में एकत्रित जल-मल का 70 फीसदी हिस्सा ठीक से डिस्पोजल न होने के कारण रिस-रिस कर नीचे पहुंचता है और जमीनी पानी को उल्टे प्रदूषित कर रहा है।
सैनिटेशन के मामले में आधुनिक भारत की दुर्दशा के बरअक्स मोहनजोदारो एवं हरप्पा संस्कृतियों अर्थात सिन्धु घाटी की सभ्यता का अनुभव दिखता है। सभी जानते हैं सिंधु घाटी के तमाम शहर उस दौर में शहर नियोजन प्रणाली का उत्कृष्ट नमूना थे। इनमें सबसे अधिक सराही जाती रही है यहां मौजूद भूमिगत डेªनेज (निकासी) प्रणाली। एक अन्य विशिष्टता रही है कि आम लोगों के घरों में भी स्नानगृहों का इन्तज़ाम था और ऐसे निकासी के इन्तज़ाम थे जिसके तहत घर का तमाम अवशिष्ट एवं गन्दा पानी नीचे अवस्थित भूमिगत जारों में पहुंचाया जाता था।
इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उस सभ्यता में आज से लगभग पांच हजार साल पहले आम आदमी को केन्द्र में रख कर जल-मल निकासी और सार्वजनिक स्वास्थ्य की योजना को वरीयता मिली थी, वहीं आज हम बहुत विपरीत स्थिति पा रहे हैं।
सुभाष गाताडे,
एच 4 पुसा अपार्टमेण्ट, रोहिणी सैक्टर 15, दिल्ली 110089
लो क सं घ र्ष !: कहीं सी आई ऐ के नौकर तो नही हैं ?
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
लो क सं घ र्ष !: कहीं सी आई ऐ के नौकर तो नही हैं ?
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
क्या आप छत्रधर महतो को जानते हैं ?
शायद ये सवाल आज जवाब का मोहताज ना हो क्यूंकि भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस के अगवा होने के बाद अब सभी इस नाम से वाकिफ हो गए होंगे। मगर जिस के करण राजधानी को अगवा किया गया पुरे देश में अपरा तफरी मची रही उस नाम के साथ मीडिया ने इतने लेट से हो हल्ला हंगामा क्यूँ किया शायद इसका जवाब मीडिया भी ना दे।
हम सभी अपने देश से बहुत प्यार करते हैं और राष्ट्रीय अस्मिता, एकता और अखंडता में बाधक बननेवालों को देशद्रोही ही समझते हैं, मानते हैं की ऐसा करने वालों पर तत्काल राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चले मगर छोटे छ्होटे अपराध को भयावह रूप देकर विकराल ख़बर बनाने वाली मीडिया ने छत्रधर को ख़बर नही बनाया क्यूँ ?
आइये इसको तलाशते हैं।
क्या आप जानते हैं कि छत्रधर महतो को बंगाल पुलिस ने किस प्रकार गिरफ्तार किया ? नही तो नीचे के तस्वीर पर नजर डालिए।
शीर्षक ही बताता है कि छ्त्र्धर को धोखे से पकड़ा मगर कौन सा धोखा ? कैसा धोखा ?
स्टिंग ओपरेशन और कई सवाल खड़े हुए, औचित्य और गरिमा की बात भी खड़ी हुई मगर प्रश्न अनुत्तरित ही रहा।
बंगाल पुलिस ने पत्रकार के रूप में छ्त्रधर से सम्पर्की साधा और पत्रकारिता का लबादा ओढ़ कर गिरफ्तार कर लिया, अपने अधिकार के लिए चिल्ल पों करती मीडिया के लिए ये कतई ख़बर नही थी, और पुलिस के इस कार्य पर गिने चुने बंगाल पत्रकार और कुछ पत्रकारिता संगठनों के अलावे किसी ने चुन-चपड़ भी नही की।
जिस सूत्र के आधार पर पत्रकारिता चलता है, बड़े बड़े फन्ने खां पत्रकारों की भी पत्रकारिता इन्ही सूत्रों पर चलती है। जों यह सूत्र ना हो तो बड़े बड़े संपादक जो टेबल पत्रकारिता कर बहस का सदस्य बन बुद्धिजीवी बनने का स्वांग रच समाज को छलते हैं की पत्रकारिता भी धरी की धरी रह जाए। मगर पत्रकारिता के सूत्र का बेजा इस्तेमाल और पत्रकारिता चुप वस्तुतः दोगले चरित्र का प्रमाण है। लोग भूले नही होंगे जब छतीसगढ़ में विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था तो पत्रकारिता का हुजूम एक स्वर में राष्ट्रवादी हो गया था तो इस बार कहाँ गई आवाज?
सबके अपने अपने कार्यक्षेत्र हैं, पत्रकारिता के भी और पुलिस के भी। प्रशाशन और न्यायपालिका के भी मगर जिस तरह से पत्रकार बहुरूपिये होते जा रहे हैं, पुलिस इनके ही रुख को अख्तियार कर इसी समूह का हिस्सा बन रही है आने वाले दिनों में अपराधी और आतंकी पुलिस या पत्रकार, जज या पदाधिकारी का रूप ले आम लोगों के बीच आतंक का दायरा बढाये।
प्रश्न अनुत्तरित है ........
फोटो साभार: इंडिया न्यूज़ साप्ताहिक
क्या आप छत्रधर महतो को जानते हैं ?
शायद ये सवाल आज जवाब का मोहताज ना हो क्यूंकि भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस के अगवा होने के बाद अब सभी इस नाम से वाकिफ हो गए होंगे। मगर जिस के करण राजधानी को अगवा किया गया पुरे देश में अपरा तफरी मची रही उस नाम के साथ मीडिया ने इतने लेट से हो हल्ला हंगामा क्यूँ किया शायद इसका जवाब मीडिया भी ना दे।
हम सभी अपने देश से बहुत प्यार करते हैं और राष्ट्रीय अस्मिता, एकता और अखंडता में बाधक बननेवालों को देशद्रोही ही समझते हैं, मानते हैं की ऐसा करने वालों पर तत्काल राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चले मगर छोटे छ्होटे अपराध को भयावह रूप देकर विकराल ख़बर बनाने वाली मीडिया ने छत्रधर को ख़बर नही बनाया क्यूँ ?
आइये इसको तलाशते हैं।
क्या आप जानते हैं कि छत्रधर महतो को बंगाल पुलिस ने किस प्रकार गिरफ्तार किया ? नही तो नीचे के तस्वीर पर नजर डालिए।
शीर्षक ही बताता है कि छ्त्र्धर को धोखे से पकड़ा मगर कौन सा धोखा ? कैसा धोखा ?
स्टिंग ओपरेशन और कई सवाल खड़े हुए, औचित्य और गरिमा की बात भी खड़ी हुई मगर प्रश्न अनुत्तरित ही रहा।
बंगाल पुलिस ने पत्रकार के रूप में छ्त्रधर से सम्पर्की साधा और पत्रकारिता का लबादा ओढ़ कर गिरफ्तार कर लिया, अपने अधिकार के लिए चिल्ल पों करती मीडिया के लिए ये कतई ख़बर नही थी, और पुलिस के इस कार्य पर गिने चुने बंगाल पत्रकार और कुछ पत्रकारिता संगठनों के अलावे किसी ने चुन-चपड़ भी नही की।
जिस सूत्र के आधार पर पत्रकारिता चलता है, बड़े बड़े फन्ने खां पत्रकारों की भी पत्रकारिता इन्ही सूत्रों पर चलती है। जों यह सूत्र ना हो तो बड़े बड़े संपादक जो टेबल पत्रकारिता कर बहस का सदस्य बन बुद्धिजीवी बनने का स्वांग रच समाज को छलते हैं की पत्रकारिता भी धरी की धरी रह जाए। मगर पत्रकारिता के सूत्र का बेजा इस्तेमाल और पत्रकारिता चुप वस्तुतः दोगले चरित्र का प्रमाण है। लोग भूले नही होंगे जब छतीसगढ़ में विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था तो पत्रकारिता का हुजूम एक स्वर में राष्ट्रवादी हो गया था तो इस बार कहाँ गई आवाज?
सबके अपने अपने कार्यक्षेत्र हैं, पत्रकारिता के भी और पुलिस के भी। प्रशाशन और न्यायपालिका के भी मगर जिस तरह से पत्रकार बहुरूपिये होते जा रहे हैं, पुलिस इनके ही रुख को अख्तियार कर इसी समूह का हिस्सा बन रही है आने वाले दिनों में अपराधी और आतंकी पुलिस या पत्रकार, जज या पदाधिकारी का रूप ले आम लोगों के बीच आतंक का दायरा बढाये।
प्रश्न अनुत्तरित है ........
फोटो साभार: इंडिया न्यूज़ साप्ताहिक
Hey ladies its wake up time....It’s not about Men vs. Women!!
Does your work let you be kind of person who you are. How many books have you read and how many songs you remember. In times of GBs we forget lyrics. I agree we might have all songs but then when it comes to recalling we forget. At least it is cause with me.
Do you remember what did your dad negotiated with in laws? Kind of painting and art work you did. Kind of food you made. Is cooking still fascinates you!! Are you sure you really enjoy doing it any more or it’s just you have stopped thinking about this. And if you were in love then was it your deliveries at work responsible for your marriage. It was the kind of person you are and your fun quotient.
These days there is some kind of image imposed to us. The way we should be. Well I can’t blame media because its self impose thing. I think it works on sub conscious level.
One reason why we have distaste, we are expected to behave in certain format. I mean it’s obvious. Ask any mid 40s women and she will tell you she is content. But are they? I think it hardly bother them anymore.
Dynamics and challenge are two things which lacks completely in household. There is something called self. When I look at my mom’s I where she finds her successful but when it come to making self she has failed measurably. Her domain is so big that there is no place for self. This frame work might make her great but not content as a human being.
Hey ladies its wake up time....It’s not about Men vs. Women!!
Does your work let you be kind of person who you are. How many books have you read and how many songs you remember. In times of GBs we forget lyrics. I agree we might have all songs but then when it comes to recalling we forget. At least it is cause with me.
Do you remember what did your dad negotiated with in laws? Kind of painting and art work you did. Kind of food you made. Is cooking still fascinates you!! Are you sure you really enjoy doing it any more or it’s just you have stopped thinking about this. And if you were in love then was it your deliveries at work responsible for your marriage. It was the kind of person you are and your fun quotient.
These days there is some kind of image imposed to us. The way we should be. Well I can’t blame media because its self impose thing. I think it works on sub conscious level.
One reason why we have distaste, we are expected to behave in certain format. I mean it’s obvious. Ask any mid 40s women and she will tell you she is content. But are they? I think it hardly bother them anymore.
Dynamics and challenge are two things which lacks completely in household. There is something called self. When I look at my mom’s I where she finds her successful but when it come to making self she has failed measurably. Her domain is so big that there is no place for self. This frame work might make her great but not content as a human being.
Hey ladies its wake up time....It’s not about Men vs. Women!!
Does your work let you be kind of person who you are. How many books have you read and how many songs you remember. In times of GBs we forget lyrics. I agree we might have all songs but then when it comes to recalling we forget. At least it is cause with me.
Do you remember what did your dad negotiated with in laws? Kind of painting and art work you did. Kind of food you made. Is cooking still fascinates you!! Are you sure you really enjoy doing it any more or it’s just you have stopped thinking about this. And if you were in love then was it your deliveries at work responsible for your marriage. It was the kind of person you are and your fun quotient.
These days there is some kind of image imposed to us. The way we should be. Well I can’t blame media because its self impose thing. I think it works on sub conscious level.
One reason why we have distaste, we are expected to behave in certain format. I mean it’s obvious. Ask any mid 40s women and she will tell you she is content. But are they? I think it hardly bother them anymore.
Dynamics and challenge are two things which lacks completely in household. There is something called self. When I look at my mom’s I where she finds her successful but when it come to making self she has failed measurably. Her domain is so big that there is no place for self. This frame work might make her great but not content as a human being.
Hey ladies its wake up time....It’s not about Men vs. Women!!
Does your work let you be kind of person who you are. How many books have you read and how many songs you remember. In times of GBs we forget lyrics. I agree we might have all songs but then when it comes to recalling we forget. At least it is cause with me.
Do you remember what did your dad negotiated with in laws? Kind of painting and art work you did. Kind of food you made. Is cooking still fascinates you!! Are you sure you really enjoy doing it any more or it’s just you have stopped thinking about this. And if you were in love then was it your deliveries at work responsible for your marriage. It was the kind of person you are and your fun quotient.
These days there is some kind of image imposed to us. The way we should be. Well I can’t blame media because its self impose thing. I think it works on sub conscious level.
One reason why we have distaste, we are expected to behave in certain format. I mean it’s obvious. Ask any mid 40s women and she will tell you she is content. But are they? I think it hardly bother them anymore.
Dynamics and challenge are two things which lacks completely in household. There is something called self. When I look at my mom’s I where she finds her successful but when it come to making self she has failed measurably. Her domain is so big that there is no place for self. This frame work might make her great but not content as a human being.
Hey ladies its wake up time....It’s not about Men vs. Women!!
Does your work let you be kind of person who you are. How many books have you read and how many songs you remember. In times of GBs we forget lyrics. I agree we might have all songs but then when it comes to recalling we forget. At least it is cause with me.
Do you remember what did your dad negotiated with in laws? Kind of painting and art work you did. Kind of food you made. Is cooking still fascinates you!! Are you sure you really enjoy doing it any more or it’s just you have stopped thinking about this. And if you were in love then was it your deliveries at work responsible for your marriage. It was the kind of person you are and your fun quotient.
These days there is some kind of image imposed to us. The way we should be. Well I can’t blame media because its self impose thing. I think it works on sub conscious level.
One reason why we have distaste, we are expected to behave in certain format. I mean it’s obvious. Ask any mid 40s women and she will tell you she is content. But are they? I think it hardly bother them anymore.
Dynamics and challenge are two things which lacks completely in household. There is something called self. When I look at my mom’s I where she finds her successful but when it come to making self she has failed measurably. Her domain is so big that there is no place for self. This frame work might make her great but not content as a human being.
लो क सं घ र्ष !: बुदबुदाते, खदबदाते, भरे बैठे लोगों को व्यंग्य वार्ता का आमंत्रण
चलिये समाज की कुरीतियों, विसंगतियों, झूठ व आडम्बर पर प्रहार करें। हमारे औजार हमारी संवेदनाएं, हमारी अनुभूतियां, हमारे अनुभव होंगे और इनको जो धार देगा निस्संदेह वह व्यंग्य होगा। आईये हमसे हाथ मिलाइये और करिए समाज की सफाई; क्योंकि अब ‘व्यंग्यवार्ता’ का शुभारम्भ हो चुका है। संभावित दूसरा अंक पुलिस विशेषांक होगा। कमर कसिए, कलम घिसिए और भेज दीजिए अपनी चुटीली रचनाएं। हम उन सभी का स्वागत करते हैं जिनकी मुट्ठी अभी भी भिचतीं है और जो समाज को सुन्दर, बेहतर और स्वस्थ देखना चाहते हैं..........।
शुभकामनओं सहित...!
आपका मित्र
अनूप मणि त्रिपाठी
सम्पादक
व्यंग्यवार्ता
24, जहाँगीराबाद मेंशन, हजरतगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
09956789394, 09451907315
anoopmtripathi@gmail.com
atulbhashasamwad@gmail.com
लोकसंघर्ष के सभी मित्रों से अनुरोध है की लखनऊ से प्रकाशित व्यंग वार्ता पत्रिका में अपने लिखे व्यंग भेजने का कष्ट करें ।
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
लो क सं घ र्ष !: बुदबुदाते, खदबदाते, भरे बैठे लोगों को व्यंग्य वार्ता का आमंत्रण
चलिये समाज की कुरीतियों, विसंगतियों, झूठ व आडम्बर पर प्रहार करें। हमारे औजार हमारी संवेदनाएं, हमारी अनुभूतियां, हमारे अनुभव होंगे और इनको जो धार देगा निस्संदेह वह व्यंग्य होगा। आईये हमसे हाथ मिलाइये और करिए समाज की सफाई; क्योंकि अब ‘व्यंग्यवार्ता’ का शुभारम्भ हो चुका है। संभावित दूसरा अंक पुलिस विशेषांक होगा। कमर कसिए, कलम घिसिए और भेज दीजिए अपनी चुटीली रचनाएं। हम उन सभी का स्वागत करते हैं जिनकी मुट्ठी अभी भी भिचतीं है और जो समाज को सुन्दर, बेहतर और स्वस्थ देखना चाहते हैं..........।
शुभकामनओं सहित...!
आपका मित्र
अनूप मणि त्रिपाठी
सम्पादक
व्यंग्यवार्ता
24, जहाँगीराबाद मेंशन, हजरतगंज, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
09956789394, 09451907315
anoopmtripathi@gmail.com
atulbhashasamwad@gmail.com
लोकसंघर्ष के सभी मित्रों से अनुरोध है की लखनऊ से प्रकाशित व्यंग वार्ता पत्रिका में अपने लिखे व्यंग भेजने का कष्ट करें ।
सुमन
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लो क सं घ र्ष !: नोबुल पुरस्कार विजेता नए अर्थशास्त्री ? पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग
सर्विदित है की नेपाल में तुलसी मेहर और भारत में गाँधी जी ने विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का समेकित सिद्धांत विकसित किया । इसका उन्होंने कई क्षेत्रो में सफल प्रयोग भी किया। इस साल जब गाँधी जी की मशहूर पुस्तक हिंद स्वराज के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही है, तब स्वेडिस साइंस अकादमी को दो अमेरिकी अर्थशास्त्री के हवाले से पता चलता है की भारत और नेपाल में सामूहिक संपत्ति का सामूहिक नियमन किस प्रकार किया जा रहा है । तुलसी मेहर ने, जिन्हें 'नेपाल का गाँधी' कहा जाता था और स्वयं गाँधी जी ने सरकार और कारपोरेट से विलग ग्रामवासियों के अभिक्रम जगाकर स्थानीय श्रोत्रो पर आधारित समग्र विकास का वैकल्पिक विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्राम व्यवस्था का तंत्र विकसित किया था। अखिल भारतीय चरखा संघ इसका उदाहरण था, जिसका नेटवर्क पूरे देश में फैला । बाद में विनोबाजी ने इस व्यवस्था का प्रयोग 'ग्रामदान' आन्दोलन के मध्यम से किया। डेढ़ सौ साल पहले काल मार्क्स ने मूल प्रस्थापना पेश की की उत्पादक शक्तियों का स्वामित्व समाज में निहित होना चाहिए । मार्क्स उत्पादन की शक्तियों पर समाज का सामाजिक स्वामित्व स्वाभाविक मानते थे, क्योंकि पूरा समाज इसका परिचालन करता है सम्पूर्ण समाज के लिए। राष्ट्रीयकरण सामाजिक स्वामित्व का स्थान नही ले सकता। राष्ट्रीयकरण को स्टेट काप्लेलिज्म कहा जाता है। क्म्मयुनिज़म में राज्य सत्ता सूख जाती है, फलत: सरकार का कोई स्थान नही होता है। साम्यवादी अवस्था में उत्पादन और वितरण व्यवस्था की भूमिका समाज का स्थानीय तंत्र निभाएगा।
भारत के प्रत्येक ग्राम में सामूहिक इस्तेमाल के लिए 'गैर मजरुआ आम' जमींन है, जिसका सामूहिक उपयोग गाँव की सामूहिक राय से होती है। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के मुताबिक भारत की कुल भगौलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत ऐसी ही सामूहिक संपत्ति है, जिसका सामूहिक उपयोग चारागाह , तालाब, सिंचाई और जलावन की लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए किया जाता है। यह बात अलग है कि सरकारी नीतियों के चलते ऐसी सामूहिक संपत्ति का नियंत्रण या तो सरकार ने स्वयं अधिग्रहण कर लिया है या सरकारी हलके में उसका प्रबंधन इधर किसी निजी कंपनी/संस्थान के हवाले करने की सरकारी प्रवित्ति बलवती हो गई है।
नेपाल के कतिपय गाँवों की सिंचाई व्यवस्था मछली पालन, चारागाह, तालाब प्रबंधन देखकर आस्त्राम ने सिद्धांत निकला की "सामूहिक संपत्ति का प्रबंधन इस संपत्ति के उपभोक्ताओं के संगठनों द्वारा किया जा सकता है।" उसी तरह ऑलिवर विलियम्सन निष्कर्ष निकला है कि विवादों के समाधान के लिए मुक्ति बाजार व्यवस्था से ज्यादा सक्षम संगठित कंपनियाँ होती हैं । विलियमन कहते है की मुक्त बाजार में झगडे और असहमतियां होती हैं। असहमति होने पर उपभोक्ता बाजार में उपलब्ध अन्य वैकल्पिक उत्पादों की तरफ़ मुद जातें हैं , किंतु मोनोपाली मार्केट की स्तिथि में खरीदार के समक्ष कोई विकल्प नही रहता । ऐसी स्तिथि में संगठित ट्रेडिंग फर्म्स स्वयं विवाद का संधान करने में सक्षम होती हैं। इस प्रकार विलियम्सन मुक्त बाजार को नियमित करने के लिए कंपनियों की भूमिका रेखांकित करते हैं । कंपनियाँ आपसी सहमति का तंत्र विकसित कर बाजार के विरोधाभाषों पर काबू पा सकते हैं । यहाँ यह ध्यान देने की बात है की आस्त्राम और विलियम्सन दोनों ही सरकारी हस्तचेप और सरकारी नियमन की भूमिका नकारते हैं और वे मुक्त बाजार व्यवस्था के विरोधाभासों के समाधान के लिए पूर्णतया निजी ट्रेडिंग कंपनियों के विवेक पर निर्भर हो जाते हैं।
लोकतंत्र में आम लोगों की निर्णायक भूमिका होती है वे अपनी मर्जी की सरकार चुनते हैं । ऐसी स्तिथि में बाजार को विनियमित कमाने के लिए सरकार की भूमिका के अहमियत है। लोकतंत्र में सरकारी नियमन लोक भावना की सहज अभिवयक्ति है। किंतु इसे स्वीकार करने में दोनों अर्थशास्त्रियों को परहेज है। जाहिर है, स्वेडिस साइंस अकादमी मूल रूप में शोषण पर आधारित निजी व्यापार की आजादी का पक्षधर है और मुक्त बाजार व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप का विरोधी है। इसलिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त दोनों ही अर्थशास्त्रियों की तथाकथित 'नई खोज' पूँजी बाजार समर्थक पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग है।
सत्य नारायण ठाकुर
सुमन
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लो क सं घ र्ष !: नोबुल पुरस्कार विजेता नए अर्थशास्त्री ? पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग
सर्विदित है की नेपाल में तुलसी मेहर और भारत में गाँधी जी ने विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का समेकित सिद्धांत विकसित किया । इसका उन्होंने कई क्षेत्रो में सफल प्रयोग भी किया। इस साल जब गाँधी जी की मशहूर पुस्तक हिंद स्वराज के प्रकाशन के सौ वर्ष पूरे होने की स्वर्ण जयंती मनाई जा रही है, तब स्वेडिस साइंस अकादमी को दो अमेरिकी अर्थशास्त्री के हवाले से पता चलता है की भारत और नेपाल में सामूहिक संपत्ति का सामूहिक नियमन किस प्रकार किया जा रहा है । तुलसी मेहर ने, जिन्हें 'नेपाल का गाँधी' कहा जाता था और स्वयं गाँधी जी ने सरकार और कारपोरेट से विलग ग्रामवासियों के अभिक्रम जगाकर स्थानीय श्रोत्रो पर आधारित समग्र विकास का वैकल्पिक विकेन्द्रित स्वावलंबी ग्राम व्यवस्था का तंत्र विकसित किया था। अखिल भारतीय चरखा संघ इसका उदाहरण था, जिसका नेटवर्क पूरे देश में फैला । बाद में विनोबाजी ने इस व्यवस्था का प्रयोग 'ग्रामदान' आन्दोलन के मध्यम से किया। डेढ़ सौ साल पहले काल मार्क्स ने मूल प्रस्थापना पेश की की उत्पादक शक्तियों का स्वामित्व समाज में निहित होना चाहिए । मार्क्स उत्पादन की शक्तियों पर समाज का सामाजिक स्वामित्व स्वाभाविक मानते थे, क्योंकि पूरा समाज इसका परिचालन करता है सम्पूर्ण समाज के लिए। राष्ट्रीयकरण सामाजिक स्वामित्व का स्थान नही ले सकता। राष्ट्रीयकरण को स्टेट काप्लेलिज्म कहा जाता है। क्म्मयुनिज़म में राज्य सत्ता सूख जाती है, फलत: सरकार का कोई स्थान नही होता है। साम्यवादी अवस्था में उत्पादन और वितरण व्यवस्था की भूमिका समाज का स्थानीय तंत्र निभाएगा।
भारत के प्रत्येक ग्राम में सामूहिक इस्तेमाल के लिए 'गैर मजरुआ आम' जमींन है, जिसका सामूहिक उपयोग गाँव की सामूहिक राय से होती है। राष्ट्रीय सैम्पल सर्वे के मुताबिक भारत की कुल भगौलिक क्षेत्र का 15 प्रतिशत ऐसी ही सामूहिक संपत्ति है, जिसका सामूहिक उपयोग चारागाह , तालाब, सिंचाई और जलावन की लकड़ी इकठ्ठा करने के लिए किया जाता है। यह बात अलग है कि सरकारी नीतियों के चलते ऐसी सामूहिक संपत्ति का नियंत्रण या तो सरकार ने स्वयं अधिग्रहण कर लिया है या सरकारी हलके में उसका प्रबंधन इधर किसी निजी कंपनी/संस्थान के हवाले करने की सरकारी प्रवित्ति बलवती हो गई है।
नेपाल के कतिपय गाँवों की सिंचाई व्यवस्था मछली पालन, चारागाह, तालाब प्रबंधन देखकर आस्त्राम ने सिद्धांत निकला की "सामूहिक संपत्ति का प्रबंधन इस संपत्ति के उपभोक्ताओं के संगठनों द्वारा किया जा सकता है।" उसी तरह ऑलिवर विलियम्सन निष्कर्ष निकला है कि विवादों के समाधान के लिए मुक्ति बाजार व्यवस्था से ज्यादा सक्षम संगठित कंपनियाँ होती हैं । विलियमन कहते है की मुक्त बाजार में झगडे और असहमतियां होती हैं। असहमति होने पर उपभोक्ता बाजार में उपलब्ध अन्य वैकल्पिक उत्पादों की तरफ़ मुद जातें हैं , किंतु मोनोपाली मार्केट की स्तिथि में खरीदार के समक्ष कोई विकल्प नही रहता । ऐसी स्तिथि में संगठित ट्रेडिंग फर्म्स स्वयं विवाद का संधान करने में सक्षम होती हैं। इस प्रकार विलियम्सन मुक्त बाजार को नियमित करने के लिए कंपनियों की भूमिका रेखांकित करते हैं । कंपनियाँ आपसी सहमति का तंत्र विकसित कर बाजार के विरोधाभाषों पर काबू पा सकते हैं । यहाँ यह ध्यान देने की बात है की आस्त्राम और विलियम्सन दोनों ही सरकारी हस्तचेप और सरकारी नियमन की भूमिका नकारते हैं और वे मुक्त बाजार व्यवस्था के विरोधाभासों के समाधान के लिए पूर्णतया निजी ट्रेडिंग कंपनियों के विवेक पर निर्भर हो जाते हैं।
लोकतंत्र में आम लोगों की निर्णायक भूमिका होती है वे अपनी मर्जी की सरकार चुनते हैं । ऐसी स्तिथि में बाजार को विनियमित कमाने के लिए सरकार की भूमिका के अहमियत है। लोकतंत्र में सरकारी नियमन लोक भावना की सहज अभिवयक्ति है। किंतु इसे स्वीकार करने में दोनों अर्थशास्त्रियों को परहेज है। जाहिर है, स्वेडिस साइंस अकादमी मूल रूप में शोषण पर आधारित निजी व्यापार की आजादी का पक्षधर है और मुक्त बाजार व्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप का विरोधी है। इसलिए नोबेल पुरस्कार प्राप्त दोनों ही अर्थशास्त्रियों की तथाकथित 'नई खोज' पूँजी बाजार समर्थक पुराने ख्यालात की री पैकेजिंग है।
सत्य नारायण ठाकुर
सुमन
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योग से सत्ता की और बाबा रामदेव का सफर....
आम लोग बाबा रामदेव को योग गुरु मानते हैं और इसी रूप में जानते हैं, हद तो यहाँ तक की है की इनके चेले से लेकर अनुयायी तक इस ढोंगी रामदेव के हकीकत को स्वीकार करने को तैयार नही।
युवा और तेजतर्रार इंडिया न्यूज़ की पत्रकार ने इस ढोंगी बाबा पर खोजी पत्रकारिता की और इसके तथ्य को सामने रखा मगर.......
बाबा का हस्तक्षेप राजनीति में ही नही अपितु मीडिया में भी है, एक जोरदार हकीकत को रूबरू करवाने वाली इस पत्रिका के इस बाबा अंक को बाजार में नही जाने दिया गया।
मगर बाबा के हर बाजारू हडकत पर भड़ास की पैनी नजर रहती है और बाबा की हकीकत के साथ आप भड़ास पढ़ते रहिये जहाँ साड़ी हकीकत सारी सच्चई सामने आनी है।
जय जय भड़ास
साभार : इंडिया न्यूज़ साप्ताहिक
योग से सत्ता की और बाबा रामदेव का सफर....
आम लोग बाबा रामदेव को योग गुरु मानते हैं और इसी रूप में जानते हैं, हद तो यहाँ तक की है की इनके चेले से लेकर अनुयायी तक इस ढोंगी रामदेव के हकीकत को स्वीकार करने को तैयार नही।
युवा और तेजतर्रार इंडिया न्यूज़ की पत्रकार ने इस ढोंगी बाबा पर खोजी पत्रकारिता की और इसके तथ्य को सामने रखा मगर.......
बाबा का हस्तक्षेप राजनीति में ही नही अपितु मीडिया में भी है, एक जोरदार हकीकत को रूबरू करवाने वाली इस पत्रिका के इस बाबा अंक को बाजार में नही जाने दिया गया।
मगर बाबा के हर बाजारू हडकत पर भड़ास की पैनी नजर रहती है और बाबा की हकीकत के साथ आप भड़ास पढ़ते रहिये जहाँ साड़ी हकीकत सारी सच्चई सामने आनी है।
जय जय भड़ास
साभार : इंडिया न्यूज़ साप्ताहिक
मिथिला की हृदयस्थली मधुबनी : एक दर्शन
बदहाल वॉट्सन स्कूल, जर्जर राम कृष्ण कालेज, कूड़े के ढेर पर जगदीश नंदन महाविद्यालय, जातिगत राजनीति की शिकार शिवगंगा बालिका उच्च विद्यालय और शहर का दर्शन इन तस्वीरों से।
निसंदेह तस्वीर हकीकत बयां करती है, और ये आज की तस्वीर है तो क्या विकाश पुरूष मिथिला को विनाश की और धकेल रहे हैं ?
मिथिला की हृदयस्थली मधुबनी : एक दर्शन
बदहाल वॉट्सन स्कूल, जर्जर राम कृष्ण कालेज, कूड़े के ढेर पर जगदीश नंदन महाविद्यालय, जातिगत राजनीति की शिकार शिवगंगा बालिका उच्च विद्यालय और शहर का दर्शन इन तस्वीरों से।
निसंदेह तस्वीर हकीकत बयां करती है, और ये आज की तस्वीर है तो क्या विकाश पुरूष मिथिला को विनाश की और धकेल रहे हैं ?
मिथिला की हृदयस्थली मधुबनी : एक दर्शन
बदहाल वॉट्सन स्कूल, जर्जर राम कृष्ण कालेज, कूड़े के ढेर पर जगदीश नंदन महाविद्यालय, जातिगत राजनीति की शिकार शिवगंगा बालिका उच्च विद्यालय और शहर का दर्शन इन तस्वीरों से।
निसंदेह तस्वीर हकीकत बयां करती है, और ये आज की तस्वीर है तो क्या विकाश पुरूष मिथिला को विनाश की और धकेल रहे हैं ?
मिथिला की हृदयस्थली मधुबनी : एक दर्शन
बदहाल वॉट्सन स्कूल, जर्जर राम कृष्ण कालेज, कूड़े के ढेर पर जगदीश नंदन महाविद्यालय, जातिगत राजनीति की शिकार शिवगंगा बालिका उच्च विद्यालय और शहर का दर्शन इन तस्वीरों से।
निसंदेह तस्वीर हकीकत बयां करती है, और ये आज की तस्वीर है तो क्या विकाश पुरूष मिथिला को विनाश की और धकेल रहे हैं ?
मिथिला की हृदयस्थली मधुबनी : एक दर्शन
बदहाल वॉट्सन स्कूल, जर्जर राम कृष्ण कालेज, कूड़े के ढेर पर जगदीश नंदन महाविद्यालय, जातिगत राजनीति की शिकार शिवगंगा बालिका उच्च विद्यालय और शहर का दर्शन इन तस्वीरों से।
निसंदेह तस्वीर हकीकत बयां करती है, और ये आज की तस्वीर है तो क्या विकाश पुरूष मिथिला को विनाश की और धकेल रहे हैं ?
क्या आप छत्रधर महतो को जानते हैं ?
शायद ये सवाल आज जवाब का मोहताज ना हो क्यूंकि भुवनेश्वर राजधानी एक्सप्रेस के अगवा होने के बाद अब सभी इस नाम से वाकिफ हो गए होंगे। मगर जिस के करण राजधानी को अगवा किया गया पुरे देश में अपरा तफरी मची रही उस नाम के साथ मीडिया ने इतने लेट से हो हल्ला हंगामा क्यूँ किया शायद इसका जवाब मीडिया भी ना दे।
हम सभी अपने देश से बहुत प्यार करते हैं और राष्ट्रीय अस्मिता, एकता और अखंडता में बाधक बननेवालों को देशद्रोही ही समझते हैं, मानते हैं की ऐसा करने वालों पर तत्काल राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चले मगर छोटे छ्होटे अपराध को भयावह रूप देकर विकराल ख़बर बनाने वाली मीडिया ने छत्रधर को ख़बर नही बनाया क्यूँ ?
आइये इसको तलाशते हैं।
क्या आप जानते हैं कि छत्रधर महतो को बंगाल पुलिस ने किस प्रकार गिरफ्तार किया ? नही तो नीचे के तस्वीर पर नजर डालिए।
शीर्षक ही बताता है कि छ्त्र्धर को धोखे से पकड़ा मगर कौन सा धोखा ? कैसा धोखा ?
स्टिंग ओपरेशन और कई सवाल खड़े हुए, औचित्य और गरिमा की बात भी खड़ी हुई मगर प्रश्न अनुत्तरित ही रहा।
बंगाल पुलिस ने पत्रकार के रूप में छ्त्रधर से सम्पर्की साधा और पत्रकारिता का लबादा ओढ़ कर गिरफ्तार कर लिया, अपने अधिकार के लिए चिल्ल पों करती मीडिया के लिए ये कतई ख़बर नही थी, और पुलिस के इस कार्य पर गिने चुने बंगाल पत्रकार और कुछ पत्रकारिता संगठनों के अलावे किसी ने चुन-चपड़ भी नही की।
जिस सूत्र के आधार पर पत्रकारिता चलता है, बड़े बड़े फन्ने खां पत्रकारों की भी पत्रकारिता इन्ही सूत्रों पर चलती है। जों यह सूत्र ना हो तो बड़े बड़े संपादक जो टेबल पत्रकारिता कर बहस का सदस्य बन बुद्धिजीवी बनने का स्वांग रच समाज को छलते हैं की पत्रकारिता भी धरी की धरी रह जाए। मगर पत्रकारिता के सूत्र का बेजा इस्तेमाल और पत्रकारिता चुप वस्तुतः दोगले चरित्र का प्रमाण है। लोग भूले नही होंगे जब छतीसगढ़ में विनायक सेन को गिरफ्तार किया गया था तो पत्रकारिता का हुजूम एक स्वर में राष्ट्रवादी हो गया था तो इस बार कहाँ गई आवाज?
सबके अपने अपने कार्यक्षेत्र हैं, पत्रकारिता के भी और पुलिस के भी। प्रशाशन और न्यायपालिका के भी मगर जिस तरह से पत्रकार बहुरूपिये होते जा रहे हैं, पुलिस इनके ही रुख को अख्तियार कर इसी समूह का हिस्सा बन रही है आने वाले दिनों में अपराधी और आतंकी पुलिस या पत्रकार, जज या पदाधिकारी का रूप ले आम लोगों के बीच आतंक का दायरा बढाये।
प्रश्न अनुत्तरित है ........
Bihari Obama...journey part III
Before 2004 Bihar was seriously ill in terms of having an active, vigilant and effective administration. And here comes the 1st magic of shift of power to NITISH's control. Even the biggest critique of Nitish would admit that he is a good administrator and has great Leadership quality and that was exactly required for Civil administration in Bihar. Someone who can be rude, someone who can abuse and someone who has the balls to take almost dead bureaucracy HEAD ON. Change is visible and we all must Thank Nitish Kumar for that.
But since this debate is about the effectiveness of NITISH's government, I will have to act as Devil's Advocate and look into the delivery part. What we understand as Administration is the channel that takes or execute elected government agenda or manifesto or plan on to the ground level.
With the Victory of UPA coalition in center suggest that NREGA and RTI was a success and if we look in to the NREGA plan it would make you feel that this was designed keeping only Bihar in Mind. A law that gives guarantee of 100 days work to non skilled workers cannot be called success if Bihar does not have this implemented effectively. Bihar has genuine problem of labour Migration.
Unfortunately Bihar government or shall we say "Nitishji never seemed serious about the execution of this and hence lakhs of Bihari workers who could have been benefited from this had no option but to leave home and hope to have good mood of Raj Thakreys and ALFA etc.etc. for their lively-hood. .. Failure of NREGA implementation really unfolds the caliber of Bihar Current Administrative structure. Money gets lost in graft and commission is understandable but upto what extent is the denominator of a successful administrator.
Indirect effect of NREGA not being implemented is the work that could have been done by a very strong rural poor population such as Filling up Roadblocks, tree plantation, making of Kharhanja (road of bricks) etc etc and all these would certainly have made lots of difference to the life of those who lives there but......no.....how come any plan which is meant for people (mass) be implemented effectively.
Problem lies with us (like beauty lies in the eye of beholder) similarly we cannot see things beyond ritual work done here i meant -----Job that people can see and get happy .e.g. roads of patna and some cities, state highways, etc. the moment u step down from towns you would know the actual growth and success of rulers in last 4.5 yrs.....
1st failure is not implementing the Plans where 3rd party (center govt) is paying now coming back to other administrative flaws during Nitish ji regime .....abstinence of Horses for the courses....
Reason why laluji downgraded bihar's administrative caliber was very ridiculous, non of the competent officers were given serious and responsible jobs, they were kept in headoffice by the virtue of being born in a particular cast or religion, all promoted, people from state service commissions were given charge of different districts and hence we have what it was supposed to deliver.....incompetent workforce cannot deliver the result..... Now four year down the line if you see nothing much has changed in terms of administrative command in to the right hands. We still have DM's in Bihar who takes bribe as little as Rs 500/-
Interesting Fact:- Nitish government plan to promote girls education in Bihar (thanks & kudos to Nitish) is very successful, everywhere you will find girls riding their bikes for schools. How come this can be implemented so fastly and perfectly but not NREGA...
Answer:- This plan was to be executed by Administration (local) of each districts, procurement was there to earn bounties and result we all know its a successful plan.
NREGA did not have same fate as local admin has nothing to do in terms of payments and expenditure, in simple words
Like Lalu ji in nitish regime also interested in plans which makes them get biggers......
Please respond......with a constructive argument.....
(* Image source courtesy:- UncutAccess)
Bihari Obama...journey part III
Before 2004 Bihar was seriously ill in terms of having an active, vigilant and effective administration. And here comes the 1st magic of shift of power to NITISH's control. Even the biggest critique of Nitish would admit that he is a good administrator and has great Leadership quality and that was exactly required for Civil administration in Bihar. Someone who can be rude, someone who can abuse and someone who has the balls to take almost dead bureaucracy HEAD ON. Change is visible and we all must Thank Nitish Kumar for that.
But since this debate is about the effectiveness of NITISH's government, I will have to act as Devil's Advocate and look into the delivery part. What we understand as Administration is the channel that takes or execute elected government agenda or manifesto or plan on to the ground level.
With the Victory of UPA coalition in center suggest that NREGA and RTI was a success and if we look in to the NREGA plan it would make you feel that this was designed keeping only Bihar in Mind. A law that gives guarantee of 100 days work to non skilled workers cannot be called success if Bihar does not have this implemented effectively. Bihar has genuine problem of labour Migration.
Unfortunately Bihar government or shall we say "Nitishji never seemed serious about the execution of this and hence lakhs of Bihari workers who could have been benefited from this had no option but to leave home and hope to have good mood of Raj Thakreys and ALFA etc.etc. for their lively-hood. .. Failure of NREGA implementation really unfolds the caliber of Bihar Current Administrative structure. Money gets lost in graft and commission is understandable but upto what extent is the denominator of a successful administrator.
Indirect effect of NREGA not being implemented is the work that could have been done by a very strong rural poor population such as Filling up Roadblocks, tree plantation, making of Kharhanja (road of bricks) etc etc and all these would certainly have made lots of difference to the life of those who lives there but......no.....how come any plan which is meant for people (mass) be implemented effectively.
Problem lies with us (like beauty lies in the eye of beholder) similarly we cannot see things beyond ritual work done here i meant -----Job that people can see and get happy .e.g. roads of patna and some cities, state highways, etc. the moment u step down from towns you would know the actual growth and success of rulers in last 4.5 yrs.....
1st failure is not implementing the Plans where 3rd party (center govt) is paying now coming back to other administrative flaws during Nitish ji regime .....abstinence of Horses for the courses....
Reason why laluji downgraded bihar's administrative caliber was very ridiculous, non of the competent officers were given serious and responsible jobs, they were kept in headoffice by the virtue of being born in a particular cast or religion, all promoted, people from state service commissions were given charge of different districts and hence we have what it was supposed to deliver.....incompetent workforce cannot deliver the result..... Now four year down the line if you see nothing much has changed in terms of administrative command in to the right hands. We still have DM's in Bihar who takes bribe as little as Rs 500/-
Interesting Fact:- Nitish government plan to promote girls education in Bihar (thanks & kudos to Nitish) is very successful, everywhere you will find girls riding their bikes for schools. How come this can be implemented so fastly and perfectly but not NREGA...
Answer:- This plan was to be executed by Administration (local) of each districts, procurement was there to earn bounties and result we all know its a successful plan.
NREGA did not have same fate as local admin has nothing to do in terms of payments and expenditure, in simple words
Like Lalu ji in nitish regime also interested in plans which makes them get biggers......
Please respond......with a constructive argument.....
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Bihari Obama...journey part III
Before 2004 Bihar was seriously ill in terms of having an active, vigilant and effective administration. And here comes the 1st magic of shift of power to NITISH's control. Even the biggest critique of Nitish would admit that he is a good administrator and has great Leadership quality and that was exactly required for Civil administration in Bihar. Someone who can be rude, someone who can abuse and someone who has the balls to take almost dead bureaucracy HEAD ON. Change is visible and we all must Thank Nitish Kumar for that.
But since this debate is about the effectiveness of NITISH's government, I will have to act as Devil's Advocate and look into the delivery part. What we understand as Administration is the channel that takes or execute elected government agenda or manifesto or plan on to the ground level.
With the Victory of UPA coalition in center suggest that NREGA and RTI was a success and if we look in to the NREGA plan it would make you feel that this was designed keeping only Bihar in Mind. A law that gives guarantee of 100 days work to non skilled workers cannot be called success if Bihar does not have this implemented effectively. Bihar has genuine problem of labour Migration.
Unfortunately Bihar government or shall we say "Nitishji never seemed serious about the execution of this and hence lakhs of Bihari workers who could have been benefited from this had no option but to leave home and hope to have good mood of Raj Thakreys and ALFA etc.etc. for their lively-hood. .. Failure of NREGA implementation really unfolds the caliber of Bihar Current Administrative structure. Money gets lost in graft and commission is understandable but upto what extent is the denominator of a successful administrator.
Indirect effect of NREGA not being implemented is the work that could have been done by a very strong rural poor population such as Filling up Roadblocks, tree plantation, making of Kharhanja (road of bricks) etc etc and all these would certainly have made lots of difference to the life of those who lives there but......no.....how come any plan which is meant for people (mass) be implemented effectively.
Problem lies with us (like beauty lies in the eye of beholder) similarly we cannot see things beyond ritual work done here i meant -----Job that people can see and get happy .e.g. roads of patna and some cities, state highways, etc. the moment u step down from towns you would know the actual growth and success of rulers in last 4.5 yrs.....
1st failure is not implementing the Plans where 3rd party (center govt) is paying now coming back to other administrative flaws during Nitish ji regime .....abstinence of Horses for the courses....
Reason why laluji downgraded bihar's administrative caliber was very ridiculous, non of the competent officers were given serious and responsible jobs, they were kept in headoffice by the virtue of being born in a particular cast or religion, all promoted, people from state service commissions were given charge of different districts and hence we have what it was supposed to deliver.....incompetent workforce cannot deliver the result..... Now four year down the line if you see nothing much has changed in terms of administrative command in to the right hands. We still have DM's in Bihar who takes bribe as little as Rs 500/-
Interesting Fact:- Nitish government plan to promote girls education in Bihar (thanks & kudos to Nitish) is very successful, everywhere you will find girls riding their bikes for schools. How come this can be implemented so fastly and perfectly but not NREGA...
Answer:- This plan was to be executed by Administration (local) of each districts, procurement was there to earn bounties and result we all know its a successful plan.
NREGA did not have same fate as local admin has nothing to do in terms of payments and expenditure, in simple words
Like Lalu ji in nitish regime also interested in plans which makes them get biggers......
Please respond......with a constructive argument.....
(* Image source courtesy:- UncutAccess)
Bihari Obama...journey part III
Before 2004 Bihar was seriously ill in terms of having an active, vigilant and effective administration. And here comes the 1st magic of shift of power to NITISH's control. Even the biggest critique of Nitish would admit that he is a good administrator and has great Leadership quality and that was exactly required for Civil administration in Bihar. Someone who can be rude, someone who can abuse and someone who has the balls to take almost dead bureaucracy HEAD ON. Change is visible and we all must Thank Nitish Kumar for that.
But since this debate is about the effectiveness of NITISH's government, I will have to act as Devil's Advocate and look into the delivery part. What we understand as Administration is the channel that takes or execute elected government agenda or manifesto or plan on to the ground level.
With the Victory of UPA coalition in center suggest that NREGA and RTI was a success and if we look in to the NREGA plan it would make you feel that this was designed keeping only Bihar in Mind. A law that gives guarantee of 100 days work to non skilled workers cannot be called success if Bihar does not have this implemented effectively. Bihar has genuine problem of labour Migration.
Unfortunately Bihar government or shall we say "Nitishji never seemed serious about the execution of this and hence lakhs of Bihari workers who could have been benefited from this had no option but to leave home and hope to have good mood of Raj Thakreys and ALFA etc.etc. for their lively-hood. .. Failure of NREGA implementation really unfolds the caliber of Bihar Current Administrative structure. Money gets lost in graft and commission is understandable but upto what extent is the denominator of a successful administrator.
Indirect effect of NREGA not being implemented is the work that could have been done by a very strong rural poor population such as Filling up Roadblocks, tree plantation, making of Kharhanja (road of bricks) etc etc and all these would certainly have made lots of difference to the life of those who lives there but......no.....how come any plan which is meant for people (mass) be implemented effectively.
Problem lies with us (like beauty lies in the eye of beholder) similarly we cannot see things beyond ritual work done here i meant -----Job that people can see and get happy .e.g. roads of patna and some cities, state highways, etc. the moment u step down from towns you would know the actual growth and success of rulers in last 4.5 yrs.....
1st failure is not implementing the Plans where 3rd party (center govt) is paying now coming back to other administrative flaws during Nitish ji regime .....abstinence of Horses for the courses....
Reason why laluji downgraded bihar's administrative caliber was very ridiculous, non of the competent officers were given serious and responsible jobs, they were kept in headoffice by the virtue of being born in a particular cast or religion, all promoted, people from state service commissions were given charge of different districts and hence we have what it was supposed to deliver.....incompetent workforce cannot deliver the result..... Now four year down the line if you see nothing much has changed in terms of administrative command in to the right hands. We still have DM's in Bihar who takes bribe as little as Rs 500/-
Interesting Fact:- Nitish government plan to promote girls education in Bihar (thanks & kudos to Nitish) is very successful, everywhere you will find girls riding their bikes for schools. How come this can be implemented so fastly and perfectly but not NREGA...
Answer:- This plan was to be executed by Administration (local) of each districts, procurement was there to earn bounties and result we all know its a successful plan.
NREGA did not have same fate as local admin has nothing to do in terms of payments and expenditure, in simple words
Like Lalu ji in nitish regime also interested in plans which makes them get biggers......
Please respond......with a constructive argument.....
(* Image source courtesy:- UncutAccess)
Bihari Obama...journey part III
Before 2004 Bihar was seriously ill in terms of having an active, vigilant and effective administration. And here comes the 1st magic of shift of power to NITISH's control. Even the biggest critique of Nitish would admit that he is a good administrator and has great Leadership quality and that was exactly required for Civil administration in Bihar. Someone who can be rude, someone who can abuse and someone who has the balls to take almost dead bureaucracy HEAD ON. Change is visible and we all must Thank Nitish Kumar for that.
But since this debate is about the effectiveness of NITISH's government, I will have to act as Devil's Advocate and look into the delivery part. What we understand as Administration is the channel that takes or execute elected government agenda or manifesto or plan on to the ground level.
With the Victory of UPA coalition in center suggest that NREGA and RTI was a success and if we look in to the NREGA plan it would make you feel that this was designed keeping only Bihar in Mind. A law that gives guarantee of 100 days work to non skilled workers cannot be called success if Bihar does not have this implemented effectively. Bihar has genuine problem of labour Migration.
Unfortunately Bihar government or shall we say "Nitishji never seemed serious about the execution of this and hence lakhs of Bihari workers who could have been benefited from this had no option but to leave home and hope to have good mood of Raj Thakreys and ALFA etc.etc. for their lively-hood. .. Failure of NREGA implementation really unfolds the caliber of Bihar Current Administrative structure. Money gets lost in graft and commission is understandable but upto what extent is the denominator of a successful administrator.
Indirect effect of NREGA not being implemented is the work that could have been done by a very strong rural poor population such as Filling up Roadblocks, tree plantation, making of Kharhanja (road of bricks) etc etc and all these would certainly have made lots of difference to the life of those who lives there but......no.....how come any plan which is meant for people (mass) be implemented effectively.
Problem lies with us (like beauty lies in the eye of beholder) similarly we cannot see things beyond ritual work done here i meant -----Job that people can see and get happy .e.g. roads of patna and some cities, state highways, etc. the moment u step down from towns you would know the actual growth and success of rulers in last 4.5 yrs.....
1st failure is not implementing the Plans where 3rd party (center govt) is paying now coming back to other administrative flaws during Nitish ji regime .....abstinence of Horses for the courses....
Reason why laluji downgraded bihar's administrative caliber was very ridiculous, non of the competent officers were given serious and responsible jobs, they were kept in headoffice by the virtue of being born in a particular cast or religion, all promoted, people from state service commissions were given charge of different districts and hence we have what it was supposed to deliver.....incompetent workforce cannot deliver the result..... Now four year down the line if you see nothing much has changed in terms of administrative command in to the right hands. We still have DM's in Bihar who takes bribe as little as Rs 500/-
Interesting Fact:- Nitish government plan to promote girls education in Bihar (thanks & kudos to Nitish) is very successful, everywhere you will find girls riding their bikes for schools. How come this can be implemented so fastly and perfectly but not NREGA...
Answer:- This plan was to be executed by Administration (local) of each districts, procurement was there to earn bounties and result we all know its a successful plan.
NREGA did not have same fate as local admin has nothing to do in terms of payments and expenditure, in simple words
Like Lalu ji in nitish regime also interested in plans which makes them get biggers......
Please respond......with a constructive argument.....
(* Image source courtesy:- UncutAccess)
भारतीय रेल और तत्परता यात्रियों की !!!
ट्रेन से बाहर निकला तो मनमाड़ से औरंगाबाद के लिए पहले टिकट लेना था सो प्रवेश द्वार की तरफ़ बढ़ा, धीरे धीरे कदम बढाते हुए टिकट काउंटर की और बढ़ चला।
सो मैं भी ट्रेन के इन्तजार मैं इधर उधर
कुव्य्वास्थ ने भी रेल मंत्री के प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाया।
तस्वीरों को देख कर इस धोखे में ना जाइयेगा कि ये लोग सामने कड़ी ट्रेन से उतरने वाले यात्री हैं अपितु ये वो भागने वाले लोग हैं जिन्हें रात के दो बजे अचानक से प्लेटफोर्म बदल कर ट्रेन पकड़नीहै।
जय हो
भारतीय रेल और तत्परता यात्रियों की !!!
ट्रेन से बाहर निकला तो मनमाड़ से औरंगाबाद के लिए पहले टिकट लेना था सो प्रवेश द्वार की तरफ़ बढ़ा, धीरे धीरे कदम बढाते हुए टिकट काउंटर की और बढ़ चला।
सो मैं भी ट्रेन के इन्तजार मैं इधर उधर
कुव्य्वास्थ ने भी रेल मंत्री के प्रशासनिक क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाया।
तस्वीरों को देख कर इस धोखे में ना जाइयेगा कि ये लोग सामने कड़ी ट्रेन से उतरने वाले यात्री हैं अपितु ये वो भागने वाले लोग हैं जिन्हें रात के दो बजे अचानक से प्लेटफोर्म बदल कर ट्रेन पकड़नीहै।
जय हो
I want to respect creativity till the time it’s actually creative!!!
I want to respect creativity till the time it’s actually creative!!!
INDIA'S art form has always been suggestive. There is very thin line between Rape and Sex as a subject. You can explain trauma else you will end up delivering pleasure. I don’t want to be laud. So would like to come to the point. Is content mere piece of imitation and just subject to numbers! I know it’s very cynical to comment on content as in they are art & creation. These days there is trend of reality shows. Nothing new but just it’s only genre which have grown like any weed. I don't want to say so but then reality is so. I deal numbers and then I understand its value but when it comes to some other value (ethical value) I am unable to understand how do some one prevent 8 year old kid not to view esp. when he/she is viewing GEC that too just after finishing his studies!!! And this is not about my family rather its all over