हिन्दी दिवस पर एक कविता.

मिनी यादव अलीगढ की हैं, भारत के सर्वोच्च सेवा की तैयारी करती हैं, उन्होंने हिन्दी दिवस पर ही मेल से ये कविता उपलब्ध कराया की इसे अनकही पर प्रकाशित करे।
मिनी जी का आभार और शुभकामना।


सिसकती सी हिंदी


जिनकी यह भाषा वही इसको भूले ,
कि हिंदी यहाँ बेअसर हो रही है ।
हिंदी दिवस पर ही हिंदी की पूजा ,
इसे देख हिंदी बहुत रो रही है।
हर एक देश की भाषा है अपनी ,
उसे देशवासी है सर पर बिठाते ,
मगर कैसी निरपेक्षता अपने घर में ,
हम अपनी ज़ुबा को स्वयं भूल जाते।
मिला सिर्फ एक दिन ही पूरे बरस में ,
यह हिंदी की क्या दुर्दशा हो रही है ।
कि जिसके लिए खून इतने बहाए,
जवानों ने अपने गले भी कटवाए ,
कि जिसके लिए सरज़मी लाल कर दी ,
जवानी भी पुरखो ने पामाल कर दी ।
तड़पते थे कहने को हम जिसको अपनी ,
वही हिंदी भाषा कहाँ खो रही है।
यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
जय हिंद जय भारत




लेखक :- अज्ञात

7 comments:

  1. तड़पते थे कहने को हम जिसको अपनी ,
    वही हिंदी भाषा कहाँ खो रही है।
    यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
    यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
    यही देख हिंदी दुखी हो रही है ,
    यह भारत कि जनता कहाँ सो रही है।
    रजनीश जी बहुत सुन्दर कविता है। सच मी आज हिन्दी अपनी दुरदशा पर रो रही है। हिन्दी दिवस की बधाई

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  2. बहुत बढ़िया लिखा है।
    जय हिन्दी-जय नागरी!!
    बधाई!

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  3. हिन्दी की दुर्दशा का सटीक चित्रण किया है।
    हिन्दी दिवस की बधायी।

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  4. भारत के लोगो बोलो यह आज कैसी घड़ी है, चले गए अंग्रेज मगर अंग्रेजी यही खड़ी है ........
    जय हिंद जय भारत
    बहुत बढ़िया सर जी

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  5. Kya Khoob kha aapne

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  6. बहुत सुन्दर,
    भावपूर्ण कविता है
    बधाई स्वीकारिये

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  7. बहुत ही बेहतरीन रचना , हिंदी जागरूकता के लिए बढिया माध्यम, अभियान अवश्य जारी रखें

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