सोचता हूँ , हल चलाता हुआ मंगरू मुझसे अच्छा है । उसे अपने काम का पता तो है न । वह मन से कर भी रहा है ।
मुझे तो बहुत कुछ पता ही नही और कुछ - कुछ पता है भी तो काम नही करता । मन से तो बिल्कुल ही नही ।
अवसर की आहट कई बार सुन कर भी अनसुना कर चुका हूँ , जिसका खामियाजा आजतक भुगत रहा हूँ । लगता है , कोई भी मंडप मेरे लिए नही सजेगा । मेरा कभी भी अभिषेक नही होगा । मै अकेला ही रह जाऊँगा । रातों में चाँदनी नसीब नही होगी ।
कोई राह नही कोई , कोई मंजील नही दिखती , गोल गोल घूम रहा हूँ । लगता है , आगे बढ़ रहा हूँ ।
क्या करू ,निर्दोष हिरणों को मारकर सेज नही सजा सकता ,
सो दुनिया से दो कदम पीछे रह गया ।
बछडे का हक़ मारकर पंचामृत नही बना सकता ,
सो प्यासा रह गया ।
चंदन तरु काटकर तिलक नही लगा सकता ,
सो आगे नही जा पाया ।
6 comments:
NIRASH MAT HOIYE..AP KO WAH SAB KUCHH MILEGA JO AP PANA CHAHTE HAIN. BAS PRAYAS JARI RAKHIYE..
Manoj jee niraash to nahi hoon bas kabhi kabhi dil se aawaj nikal aati hai .rok nahi pata.
भाई मार्क(यार माफ़ करिये मार्कण्डेय थोड़ा सा बड़ा लगता है अगर ये संबोधन बुरा लगे तो सूचित करें) आपने जो लिखा है वह दिल तक उतर गया..
जय जय भड़ास
soni jee mere friend mujhe mark hi kahate hai.bura kyon lagega.
मार्कण्डेय भाई आपने तो इन पंक्तियों में भावुक कर दिया काफ़ी समय तक निर्विचार बैठा रहा...
बछडे का हक़ मारकर पंचामृत नही बना सकता ,
सो प्यासा रह गया ।
चंदन तरु काटकर तिलक नही लगा सकता ,
सो आगे नही जा पाया ।
लिखते रहिये आपको साधुवाद
जय जय भड़ास
खरा आहे भाऊ, खूपच भावुक केलास तू तर मला...
जय जय भड़ास
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