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भाजपा पर भारी उसके नेताओं की महत्वाकांक्षा....
गुजरात में शंकर सिंह बाघेला, केशुभाई पटेल, उप्र में कल्याण सिंह, झारखण्ड में बाबूलाल मरांडी, मध्य प्रदेश में उमा भारती और दिल्ली में खुराना और यह लिस्ट बढ़ती जा रही है। भाजपा पहला ऐसा दल होगा जो अपने नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से सबसे ज्यादा त्रस्त रहा होगा। दरअसल इस दल में इसके नेताओं की सत्ता पाने के साथ ही महत्वाकांक्षायें निरंतर बढ़ती रही हैं। और इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा है। राजत्रंतीय मानसिकता जल्दी नहीं बदलने वाली। इसिलिये वही चरित्र राजनीतिक दलों में देखने को मिलता है जहां एक व्यक्ति राजनीतिक दल का सर्वेसर्वा होता है ऐसे में भाजपा जैसा दल अपने क्षत्रपों की महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ रहा है तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है दरअसल दूसरे दलों में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री का दावेदार दल का अध्यक्ष होता है परंतु भाजपा में ऐसा नहीं है। बसपा में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की स्वाभाविक दावेदार मायावती होंगी या समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह और एनसीपी में शरद पवार। ऐसे में दूसरे लोगों की महत्वकांक्षायें उस स्तर पर नहीं बढ़ पाती हैं। लड़ाई दूसरे नम्बर के लिये होती है। परंतु भाजपा में ऐसा नहीं है अगर नरेंद्र मोदी दावेदारी करते हैं तो अरुण जेटली को पसंद नहीं। अगर आडवाणी को आगे किया जाता है तो भैरों सिंह सारी हदों को पार कर देते हैं। यूपी में कल्याण सिंह के मन की नहीं होती है तो वे मुलायम के खेमें में चले जाते हैं। इन सब से एक बात जाहिर होती है कि जिस पार्टी को कैडर बेस माना जाता है वह नेताओं के लिये केवल तरक्की की सीढ़ी भर है यदि सचमुच वे उसको मां के समान मानते तो क्या पद के लिये उसे ठुकरा देते। और जैसे-जैसे भाजपा सत्ता की सीढ़ियां चढ़ रही है उसके नेताओं की महत्चाकांक्षायें बढ़ती जा रही है। और वे दल को ऊंचाईयों पर पंहुचाने के बजाय अपने को टाप पर पंहुचाने में लगे हैं ऐसे में वे एक साधारण नियम हमेशा ही भुला देते कि यदि सीढ़ी ही नहीं होगी तो ऊपर कैसे पंहुचेंगे। और तब न तो पार्टी की भला होता है और नहीं अपना। यूपी में भाजपा और कल्याण सिंह दोनों ही कहां गये दुनिया ने देखा। एक पुरानी कहावत है कि उस कुनबे का पतन निश्चित है जिसका कोई मुखिया नहीं होता परंतु वह कुनबा भी पतनशील होता है जहां कई मुखिया हो जाते हैं। आज भाजपा ऐसे ही दल के रुप में लोगों के सामने आ रहा है। शायद ही कोई ऐसा प्रदेश रहा है जहां सत्ता में आने के बाद भाजपा में बगावत का झण्डा बुलंद नहीं हुआ। अपने को अनुशासित बताने वाली पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के कारण भाजपा की लोगों के सामने खूब किरकिरी हुई है। हर आदमी पद के पीछे भाग रहा है। अगर नेताओं की पदलोलुपता यूं ही बढ़ती रही तो फिर गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता पार्टी को भी और नेताओं को भी।
भाईसाहब एक बात साफ़ है कि अपा-जपा-सपा-भाजपा-माकपा या कोई सी भी "पा" हो उसके जुड़े नेता पक्के हरामी होते हैं उनकी कोई नैतिकता नहीं होती पैसा,ताकत और चमड़ी चाहिए सबको तो वो किसी भी "पा" में रहने से मिले इन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। विचारधारा वगैरह की बातें तो मूर्ख जनता को चूतिया बनाने के लिये होती हैं। सबकी अपनी-अपनी महत्त्वाकांक्षा है जो साला चिरकुट झंडा पकड़े जिंदाबाद-मुर्दाबाद करता रहता है उसे भी रात दिन एक ही सपना आता है कि वो प्रधानमंत्री बन कर शपथ ले रहा है, बिल्लियों को सपने में छीछड़ॆ ही नजर आते हैं..... सभी पार्टिओं की फ़टी पड़ी है भाई।
ReplyDeleteजय जय भड़ास
कठैत जी, पार्टियां किधर आसमान पर छायी हुई हैं क्या एक भी राष्ट्रीय दल ऐसा है जो बिना गठबंधन के सरकार बना सके नेता तो पदलोलुप होते ही हैं। कड़वा निजी सच कहने जा रहा हूं कि मुझे लगता है कि देश में जटिल सामाजिक संरचना के कारण मौजूदा लोकतंत्र असफल हो चुका है।
ReplyDeleteजय जय भड़ास
उस कुनबे का पतन निश्चित है जिसका कोई मुखिया नहीं होता परंतु वह कुनबा भी पतनशील होता है जहां कई मुखिया हो जाते हैं।
ReplyDeleteaapaki baat me dam ki kami nahi hai .....