स्ल्मदाग की किस्मत तो चमक गई .... उसे ८ आस्कर अवार्ड मिले । लेकिन यह पिक्चर कुछ सवाल छोड़ गई है .....जिसका निदान ढूढ़ना इतना आसान नही है । उन झुगियों की किस्मत कब चमकेगी .... जहाँ नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ता है। भारतीय जनगणना 2001 के आंकड़ों के मुताबिक शहरी भारतीयों में से करीब 15 फीसदी लोग (संख्या में करीब 3।3 करोड़) झुग्गी बस्तियों में रहते हैं। हालांकि कुछ स्वतंत्र अध्ययनों में यह आंकड़ा 22 फीसदी तक बताया गया है। जनगणना के मुताबिक तुलनात्मक आंकड़ा समूचे देश के लिए 4 फीसदी ज्यादा यानी या 4।26 करोड़ है। देश में सर्वाधिक आबादी वाले टॉप 100 शहरों में 2.9 करोड़ झुग्गीवासी बसते हैं। मुंबई में हर दूसरा, कोलकाता में हर तीसरा और दिल्ली में हर 10वां शख्स झुग्गी में रहता है। ठाणे शहर, चेन्नई, नागपुर, उत्तरी 24 परगना के शहरी इलाके, हैदराबाद, पुणे और रंगारेड्डी के शहरी क्षेत्र ऐसे 10 शीर्ष शहर हैं जहां देश में झुग्गवासियों की सबसे ज्यादा तादाद है। दुर्भाग्य की बात है कि भारत में झुग्गी बस्ती महानगर या किसी बड़े शहर तक ही सीमित नहीं है। देश के 640 से ज्यादा शहरों और कस्बों में झुग्गी में बसने वाली आबादी रहती है। अगर आप शहर की कुल आबादी के अनुपात में झुग्गीवासियों की संख्या रखते हैं तो मुंबई (53 फीसदी) के बाद हरियाणा का फरीदाबाद (42 फीसदी), आंध्र प्रदेश का अनंतपुर (36 फीसदी), गंटूर(32 फीसदी), नेल्लोर (31.8 फीसदी) और विजयवाड़ा (30.7 फीसदी), पश्चिम बंगाल का धूपगिरि (33.5 फीसदी) और कोलकाता (30 फीसदी), उत्तर प्रदेश का मेरठ (35 फीसदी) और मेघालय का शिलॉन्ग (31.8 फीसदी) इस मोर्चे पर देश के टॉप 10 शहरों में शामिल हैं। और झुग्गी की परिभाषा क्या है? भारत की जनगणना 2001 के मुताबिक जहां बेहद अस्तव्यस्त तरीके से बने आवासों में कम से कम 300 की आबादी या करीब 60-70 परिवार रहते हैं उन्हें स्लम एक्ट समेत किसी भी कानून में झुग्गी कहा जाता है। ऐसे इलाकों में स्वच्छता का ध्यान नहीं रखा जाता, बुनियादी ढांचा अपर्याप्त होता है और पेयजल तथा शौचालय की सही व्यवस्था नहीं होती। हालांकि झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोग उपभोक्ताओं की फेहरिस्त में सबसे नीचे (बिलो द पिरामिड या बीओपी) गिने जाते हैं लेकिन उनकी भारी संख्या उन्हें देश में सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार बनाती है। नई दिल्ली स्थित इंडिकस एनालिटिक्स के एक विश्लेषण के मुताबिक शहरी भारत में बीओपी बाजार 6.5 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का है।इन झुगियों में उजाला कभी आता ही नही .....बच्चे भूख से बिलगते रहते है । इस फ़िल्म में तो जमाल को नोलेज की खान बताया गया है और वह अपने अनुभव से सभी सवालों का जबाब भी देता है लेकिन रिअल लाइफ में ऐसा नही होता ......झुगियों के बच्चे स्कूल नही जाते ..... कूड़ा बीनते रहते है .... ग़लत हाथों में पड़ कर शोषित होते है.... क्या स्लाम्दाग के निर्माता , निर्देशक या कलाकारों को इस फ़िल्म की कमाई में से कुछ पैसा झुगियों के विकास पर नही खर्च करना चाहिए । क्या हमारी सरकार को इस सम्बन्ध में ठोस निति नही बनानी चाहिए ?... इन सभी सवालों के जबाब कौन देगा ?
एक बात तो हमें अमझ लेनी चाहिए की भले हम चाँद पर पहुँच जाए लेकिन रिअल विकास तभी होगा जब स्लम एरिया के लोग खुशहाल होगे ।
SLUMDOG KI SAFALTA PAR MAST HO RAHE LOGON KO YE SAWAL KADAWE LAGENGE...BEHTARIN LIKHA HAI BHAI. BAS YAHI JAJBA BANAYE RAKHIYE..AKHIR HAM VYAVSTHA PARIVARTAN KE APNE MUL AGENDE PAR KAM KAR RAHE HAIN...EK DIN JARUR AYEGA JAB HUM HONGE KAMYAB...PLZ CARRY ON...
ReplyDeleteमार्कण्डेय भाई मुझे तो लगता है कि हमारे नेता इस फिल्म की सफ़लता से प्रभावित होकर कहीं मुंबई की झोपड़पट्टी के लाइफ़ स्टाइल का अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट न करवा लें कि भाई ये तो हमारे यहां ही रहेगी और आप सारे गोरे इस पर पिक्चर बना कर हमें बौद्धिक संपदा शुल्क दो.......
ReplyDeleteचांद पर भी जाकर ये पहले चार बंबू गाड़ेंगे और ऊपर से चटाई डाल कर झोपड़ा ही बनाएंगे वैसे भी मुझे नहीं लगता कि भारत के लोगों को इस फिल्म की सफ़लता के बाद किसी दूसरे ग्रह या उपग्रह के लोग अपने ग्रह पर आने भी देंगे।
सवाल इस फिल्म से पहले भी मुंह फ़ाड़े खड़े थे लेकिन न तो राजनेताओं को फले चिंता थी न अब है। धारावी के कार्पोरेटरों को फिल्म के लाभ का हिस्सा मिलना चाहिये आखिर उन लोगों ने इतनी गंदगी और गरीबी मेन्टेन कर जो रखी है....
जय जय भड़ास
.....manoj jee aur ajay mohan jee thanks for comment.
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