फिर वैलेण्टाइन डे आ रहा है. फिर प्रेमियों के दिल मचल रहे हैं. फिर कार्ड की, उपहारों की दुकानें सज गई हैं, और फिर भारतीय संस्कृति के रक्षकों को अपने कर्तव्य की याद आने लगी है. सही है, भारतीय संस्कृति में भला प्यार की जगह कहां हो सकती है? क्यों होनी चाहिए? भारतीय संस्कृति का मतलब है मारना-पीटना, भले ही यह मारना-पीटना औरतों के साथ ही क्यों न हो? भारतीय संस्कृति का मतलब है दूसरों के धर्म का अपमान करना. भारतीय संस्कृति का मतलब है दूसरों की सारी आज़ादियों को छीनना. यही तो कर रहे हैं हमारे संस्कृति के रक्षक.
इन्होंने तै कर लिया है कि क्या भारतीय है क्या अभारतीय. इन्होंने तै कर लिया है कि क्या संस्कृति है और क्या नहीं. इन्होंने तै कर लिया है कि पब में जाने का अधिकार पुरुषों को है, स्त्रियों को नहीं. इन्होंने तै कर लिया है आप किसी पार्क में किसी स्त्री के साथ नहीं जा सकते, भले ही वह आपकी बहन हो या पत्नी. ऐसा करने से भारतीय संस्कृति को चोट लगती है. और उसे बचाने का सर्वाधिकार इनके पास सुरक्षित है.
अब आप यह मत पूछिये कि यह अधिकार इन्हें किसने दिया, क्योंकि अधिकार दिया नहीं लिया जाता है. छीन कर, धमका कर, मार पीट कर. तभी तो हमने भी यह अधिकार इन ‘वीरों’ को सौंप दिया है. कोई प्रतिरोध नहीं, कोई विरोध नहीं.
आखिर यह तै कौन करेगा कि क्या सांस्कृतिक है और क्या असांस्कृतिक? विक्रम सेठ का वाइन पीना असांस्कृतिक है, लेकिन हिन्दू हृदय सम्राट का बियर पीना वैसा नहीं है. उसी परिवार से किसी का वैसी फिल्में बनाना भी संस्कृति पर आक्रमण नहीं है, लेकिन एक युवक युवती का पार्क में जाना कभी सहन नहीं किया जा सकता. संस्कृति के रक्षक शराब, सिगरेट और फिल्मों का धन्धा तो कर सकते हैं, लेकिन आप को यह छूट नहीं दे सकते कि अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जियें.
कभी कभी मेरे मन में सवाल उठता है कि जो लोग संस्कृति की इतनी ही चिंता करते हैं उन्हें हमारी ज़िन्दगी की अन्य बहुत सारी बेहूदगियां क्यों नज़र नहीं आतीं? मसलन यह कि हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए दूसरों की सुख-सुविधा का कोई अर्थ ही नहीं है. आप किसी क्यू में खड़े होकर देख लीजिए. आप किसी चौराहे पर लाल बत्ती पर कार रोक कर देख लीजिए, आप भीड़ में गाड़ी ड्राइव करके देख लीजिए, आप किसी गम्भीर सभा या कंसर्ट में जाकर देख लीजिए. मोबाइल घनघनाते रहेंगे और लोग बा-आवाज़े बुलन्द बतियाते रहेंगे, आपका रस भंग करते रहेंगे. हम में से हरेक ही अपने घर का कचरा अपने पड़ोसी के घर के आगे डालने में कोई संकोच नहीं करेगा. हम में से ज़्यादातर लोग दुकानदार से पूछेंगे कि अगर हम बिल न लें तो वह कितना पैसा कम कर देगा? जिन दिनों फिल्मों के आखिर में राष्ट्र गान बजता था, हम कैसे दौड़ कर गेट की तरफ भागा करते थे? और आज भी जब कहीं राष्ट्रगान बजता है तो हमारा सुलूक क्या होता है? सूची अनंत है.
मेरा सवाल यही है कि जिन्हें भारतीय संस्कृति को बचाने की बहुत फिक्र होती है, वे इन सब मामलों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या हमारी ज़िन्दगी हमारी संस्कृति की पर्याय नहीं होती? ज़िन्दगी मतलब पूरी ज़िन्दगी, न कि कुछ क्षण की ज़िन्दगी.
अग्रवाल साहब मुझे निजी तौर पर लगता है कि रक्षकों को इस बात पर ऐतराज होगा कि ये एक ही दिन क्यों मनाते हैं क्योंकि भारतीय मूल्यों ने तो पूरी वसंत के मौसम भर ऐसा आनंद मनाने के लिये बताया गया है याद है न "वसंतोत्सव".....
ReplyDeleteबेचारे खीझ उतारते हैं इसलिये ऐसी हरकतें करके पेट भर लेते हैं
काश इन्हें भी मौका मिले किसी के साथ फिरने का तो ऐसा न करें:)
जय जय भड़ास
मुझे खुशी है की देश के कुछ युवा पब संस्कृति को समाप्त करने के लिए संवेदंशील एवम कार्यशील हैं ...
ReplyDeleteभाई,
ReplyDeleteये कुंठित लोग हैं, हमारी संस्कृति के स्वयम्भू ठेकेदार.
बदलते परिवेश में आजादी और स्वेक्षा से हम किसी को वंचित नही रख सकते, बस इन नौनिहाल को अधिकार के साथ कर्तव्य का भी बोध रहे ये अत्यन्त जरुरी.
जय जय भड़ास