महत्वाकांक्षा भी काम की ही श्रेणी में आती है,
किंतु जहां धर्म साथ में नहीं है,
वहां काम पतन के गर्त में ही ले जाने वाला सिद्ध होगा।
धर्म से कोई धन नहीं मिलता।
आचार्य ने कहा "धर्म के बिना अर्थ भी नहीं होता।
इसका तात्पर्य यह है कि फिर वह अर्थ अच्छा नहीं होता,
वह अर्थ दु:ख देने वाला बन जाता है।
धन की आसक्ति बडे-बडे अनर्थ कराती है।
पिता सोचता है कि धन बहुत है,
बेटे के कब्जे में कहीं आ गया तो
हमारी स्थिति क्या होगी
ऎसे चिंतन के कारण कभी-कभी वह बेटे के प्रति भी अपराध कर बैठता है।
पुत्र कभी-कभी पितृहंता बन जाता है।
मुगल सल्तनत में और राजस्थान के रजवाडों में पिता-पुत्र के ऎसे संघर्ष हुए हैं।
पति-पत्नी के बीच दुराव और अपराध की घटनाएं हो जाती हैं।
एक दूसरे के द्वारा जहर देने या भाडे के हत्यारों द्वारा हत्या के
समाचार अखबार में आए दिन छपते रहते हैं।
अर्थ के साथ धर्म जुडा हो,
तभी वह सुख देने वाला बन सकता है।
इसलिए अर्थ और काम- ये दोनों धर्म के द्वारा अनुशासित हों,
तब उनकी सामाजिक उपयोगिता है,
अन्यथा नहीं।
इस संदर्भ में हम विचार करें
कि तीनों में श्रेष्ठ कौन
काम श्रेष्ठ है,
पर अर्थ के बिना उसकी पूर्ति नहीं होती।
आप के विचार से क्या यह सही है ..........................
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