पिछले दिनों हिंद युग्म का वार्षिकोत्सव था, साहित्यकार और हिन्दी के पैरोकार की जमात ने जिस तरह से मिल कर हिन्दी का मखोल उड़ाया, वरिष्ट ब्लोगर मसीजीवी उस से सहमत तो हो सकते हैं, आधुनिकीकरण के मद में हमारी पारम्परीकता को बंद दरवाजे के न्द्र रख सकते हैं मगर हमारी भाषा, हमारा साहित्य इतना विस्तृत और अपार ह्रदय वाला है की अपने इन कपूतों को क्षमा करने का ह्रदय रखता है। मगर शायद हिन्दी के ऐसी ही रखवालों के कारण हिन्दी की शिक्षिका और ब्लोगर शोभा महेन्द्रू ने अपने दर्द को कविता से बयान किया है। हालांकि ये कविता कई बार ब्लॉग पर आ चुकी है मगर एक बार फ़िर से यहाँ देने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना कि दर्द हिन्दी के प्रेमी में है जो हिन्दी को माँ की तरह पूजता है, उनके ह्रदय में नही जिस्न्होने हिन्दी को व्यापार कि तरह इस्तेमाल किया और बेचा है और आगे भी बेचने कि जुगत में हैं।
माँ हिन्दी अपने नासमझ बच्चों को माफ़ करना।
माँ हिन्दी अपने नासमझ बच्चों को माफ़ करना।
लेखिका हिन्दी की अध्यापिका हैं और हिन्दी ब्लोगर भी।
मैं एक अध्यापिका हूँ
हिन्दी पढ़ाती हूँ ।
मत पूछो दिन भर
कितना सकपकाती हूँ ।
जब भी कहीं किसी से
मिलने जाती हूँ --
बहुत आत्मविश्वास जताती हूँ ।
किन्तु प्रथम परिचय में ही-
पानी-पानी हो जाती हूँ ।
जब कोई पूछता है-
आप क्या करती हैं ?
मैं बड़े गर्व से कहती हूँ -
मैं एक अध्यापिका हूँ ।
अच्छा---?
किस विषय की -?
इस प्रश्न का सामना
कभी नहीं कर पाती हूँ ।
सुनते ही बहुत नीचे
धँस जाती हूँ ।
लगता है ये एक ब्रह्मास्त्र है ।
जो मेरे आत्मविश्वास को
खंड-खंड कर देगा ।
और मैं -चाह कर भी
अपनी रक्षा नहीं कर पाऊँगी ।
प्रश्न फिर गूँजता है--
किस विषय की ---
जी --हिन्दी की
बहुत कोशिश करके कहती हूँ ।
सभी के चेहरों का सम्मान
हवा हो जाता है ।
और आँखों में-
एक हिकारत सी आजाती है ।
मुझे लगता है--
मैं कोई बड़ा अपराध कर रही हूँ ।
अंग्रेजी प्रधान लोगों में
हिन्दी का प्रचार कर रही हूँ ।
मेरे विद्यार्थी हिन्दी से
उकता जाते हैं ।
पर जब कभी--
बहुत प्यार जताते हैं -
तब पूछ बैठते हैं -
मैम आप ने हिन्दी क्यों ली ?
उस वक्त मेरी नसें -
फड़फड़ाने लगती हैं ।
किन्तु प्रत्यक्ष में
खिसियाकर मुसकुराती हूँ ।
पर कोई ठोस कारण
नही बता पाती हूँ ।
एक बार प्रयास किया था ।
हिन्दी के महत्व पर
बड़ा सा भाषण दिया था ।
धारा प्रवाह हिन्दी का
जयगान किया था ।
किन्तु एक विद्यार्थी ने
झटके से पूछ लिया था --
क्या आगे काम आएगी ?
नौकरी दिलवाएगी ?
मेरा उत्साह शून्य में खो गया
मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी -
किन्तु मेरी ये बातें कौन सुनेगा?
हिन्दी हमारी राष्ट भाषा है--
तो हुआ करे----
वह वैग्यानिक और सरल है-
किन्तु नौकरी तो नहीं दिला सकती ।
विदेश तो नहीं भिजवा सकती ।
मुझे अपने हिन्दी पढ़ाने पर
शर्म आने लगती है ।
दूर-दूर ढूँढ़ती हूँ -
पर कहीं कोई हिन्दी प्रेमी नहीं मिलता ।
हिन्दी के लिए मान
झीना होने लगता है ।
और मुझे कुछ चेहरे
दिखाई देने लगते हैं ।
अंग्रेजी बोलते-- फ्रैंच सीखते-
और हिन्दी को दुदकारते ।
मैं इन चेहरों को पहचान
नहीं पाती हूँ ।
और तभी मुझे कोने में
डरी-सहमी हिन्दी दिखाई देती है ।
मेरी ओर बहुत कातर दृष्टि से देखती--
उसकी आँखों का सामना
नहीं कर पाती हूँ ।
टूटते शब्दों से
दिलासा पहुँचाती हूँ ।
किन्तु हिन्दी दिवस पर
अपनी भाषा को
कुछ नहीं दे पाती हूँ ।
हिन्दी दिवस मनाने वालों-
आज एक संकल्प उठाओ-
अंग्रेजी भले ही सीखो-
पर अपनी भाषा को
मत ठुकराओ ।
उसे यूँ अपरिचित ना बनाओ ।
हिन्दी पढ़ाती हूँ ।
मत पूछो दिन भर
कितना सकपकाती हूँ ।
जब भी कहीं किसी से
मिलने जाती हूँ --
बहुत आत्मविश्वास जताती हूँ ।
किन्तु प्रथम परिचय में ही-
पानी-पानी हो जाती हूँ ।
जब कोई पूछता है-
आप क्या करती हैं ?
मैं बड़े गर्व से कहती हूँ -
मैं एक अध्यापिका हूँ ।
अच्छा---?
किस विषय की -?
इस प्रश्न का सामना
कभी नहीं कर पाती हूँ ।
सुनते ही बहुत नीचे
धँस जाती हूँ ।
लगता है ये एक ब्रह्मास्त्र है ।
जो मेरे आत्मविश्वास को
खंड-खंड कर देगा ।
और मैं -चाह कर भी
अपनी रक्षा नहीं कर पाऊँगी ।
प्रश्न फिर गूँजता है--
किस विषय की ---
जी --हिन्दी की
बहुत कोशिश करके कहती हूँ ।
सभी के चेहरों का सम्मान
हवा हो जाता है ।
और आँखों में-
एक हिकारत सी आजाती है ।
मुझे लगता है--
मैं कोई बड़ा अपराध कर रही हूँ ।
अंग्रेजी प्रधान लोगों में
हिन्दी का प्रचार कर रही हूँ ।
मेरे विद्यार्थी हिन्दी से
उकता जाते हैं ।
पर जब कभी--
बहुत प्यार जताते हैं -
तब पूछ बैठते हैं -
मैम आप ने हिन्दी क्यों ली ?
उस वक्त मेरी नसें -
फड़फड़ाने लगती हैं ।
किन्तु प्रत्यक्ष में
खिसियाकर मुसकुराती हूँ ।
पर कोई ठोस कारण
नही बता पाती हूँ ।
एक बार प्रयास किया था ।
हिन्दी के महत्व पर
बड़ा सा भाषण दिया था ।
धारा प्रवाह हिन्दी का
जयगान किया था ।
किन्तु एक विद्यार्थी ने
झटके से पूछ लिया था --
क्या आगे काम आएगी ?
नौकरी दिलवाएगी ?
मेरा उत्साह शून्य में खो गया
मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी -
किन्तु मेरी ये बातें कौन सुनेगा?
हिन्दी हमारी राष्ट भाषा है--
तो हुआ करे----
वह वैग्यानिक और सरल है-
किन्तु नौकरी तो नहीं दिला सकती ।
विदेश तो नहीं भिजवा सकती ।
मुझे अपने हिन्दी पढ़ाने पर
शर्म आने लगती है ।
दूर-दूर ढूँढ़ती हूँ -
पर कहीं कोई हिन्दी प्रेमी नहीं मिलता ।
हिन्दी के लिए मान
झीना होने लगता है ।
और मुझे कुछ चेहरे
दिखाई देने लगते हैं ।
अंग्रेजी बोलते-- फ्रैंच सीखते-
और हिन्दी को दुदकारते ।
मैं इन चेहरों को पहचान
नहीं पाती हूँ ।
और तभी मुझे कोने में
डरी-सहमी हिन्दी दिखाई देती है ।
मेरी ओर बहुत कातर दृष्टि से देखती--
उसकी आँखों का सामना
नहीं कर पाती हूँ ।
टूटते शब्दों से
दिलासा पहुँचाती हूँ ।
किन्तु हिन्दी दिवस पर
अपनी भाषा को
कुछ नहीं दे पाती हूँ ।
हिन्दी दिवस मनाने वालों-
आज एक संकल्प उठाओ-
अंग्रेजी भले ही सीखो-
पर अपनी भाषा को
मत ठुकराओ ।
उसे यूँ अपरिचित ना बनाओ ।
रजनीश भाई,स्याही पर जिंदा रहने वाले भाईसाहब से तो मैं कभी सहमत रह ही न पाया उनकी स्वयंभू विकराल बौद्धिक सोच के चलते...
ReplyDeleteशोभा बहन का लेखन दिल को छूता है उन्हें मेरा सादर नमन..वे मुझे मूर्त हिंदी सी प्रतीत होती हैं~
वणिक सोच इतनी बाजारू हो चली है कि मां को भी बेचने से पीछे न हटे और फिर तर्क भी देती है जरा ढिठाई तो देखिये इनकी....
जय जय भड़ास
बड़े दुःख की बात है रजनीश मामा जी कि शोभा जी अभी तक हिंदी को लेकर निरुत्तर हैं कुंठाग्रस्त हैं। आप यदि प्रगति का मार्ग हिंदी के द्वारा नहीं बता पा रही हैं तो यह भाषा की कमी नहीं है बल्कि हम जैसे लोगों की कमी है जो रिरियाते रहते हैं और विकास के लिये आंग्लभाषा को ही ताकते हैं मौलिकता नष्ट हो चुकी है तभी ये मनोस्थिति है भड़ास पर आ जाइए हमारे डा.रूपेश आपको इस कुंठा से मुक्त करने की दवा दे देंगे वरना ऐसी ही बीमार हालत में रह कर तुकबंदियां लिखती रहेंगी......
ReplyDeleteजय जय भड़ास
डाक्टर साहब,
ReplyDeleteस्याही पे जीने वाले स्याही को धोखा देते हैं, अपनी सयाहता स्याही से मिटा लेना चाहते हैं और हमारी सभ्यता संस्कृति पर स्याही उडेल देना चाहते हैं, सिर्फ़ चाह ही नही रहे हैं बल्की उडेल भी रहे हैं.
शोभा जी दिल से हिन्दी की पुजारिन है आत्मा से हिन्दी को जीती हैं और नि:संदेह हिन्दी के लड़ाके में से हैं सो दुखी होने की जरुरत ही नही है हमें तो बस शोभा जी और उन जैसी हिन्दी की आत्मीयता की जरुरत है जो हमारे राष्ट्रीयता को प्रगाढ़ करे.
जय जय भड़ास