एक अनजाने सिपाही का जंगे इन्साफ, कौन देगा साथ ?

पिछले साल, हां मैं इसे पिछले साल ही कहूँगा कि तमाम भडासी और ब्लॉगर के साथ ब्लॉग पाठक से एक पहेली पूछी थी, तमाम पत्रकार और पत्रकारिता के भीष्म ब्लॉग पढ़ते हैं सो कहने की बात नही कि ये प्रश्न सबसे पहले इन्ही पत्रकारिता के पैरोकार से था जो नि:शब्द कि भांति लाला जी की दूकान के माप तौल करने वाले छोकरे से ज्यादा नही हैं


जरा फ़िर से गौर से देखिये इन महाशय को और कोशिश कीजिये पहचानने की, नही पहचाना ना........... पहचानेंगे भी नही क्यूँकी लाला जी की पट्टी आंखों पर बंधी है और लाला जी की हिदायत भी कि इसे मत पहचानो, पहचाना तो पत्रकारिता छोड़नी होगी और नि:संदेह हमारे देश में पत्रकारिता तो कोई करता ही नही, व्यवसायिक संस्थान से व्यावसायिकता जो सीख कर आए हैं

ये महाशय सेना में थे और सेना में लडाई भी लड़ी, फ़िर कानून पढा और बन गए कानूनविदकाबिलियत के बूते न्यायालय के न्यायधीश भी और निष्ठा कानून के साथ न्याय व्यवस्था में, कि सीमा पर लड़े गए लड़ाई के बाद कानून में शामिल हो कर कानू के विभीषणों के ख़िलाफ़ छेडी एलाने जंग

आगरा में ये महाशय जज थे जब अपने वरिष्ठ से अधिकार के लिए लड़ बैठे, और अधिकार के लिए लड़ना इन्हें इतना महंगा पड़ा कि देश का सबसे भ्रष्टतम जुड़ीशियरी के अनैतिकता का एक अचूक उदाहरण बन गयाजस्टिस आनंद सिंह को राष्ट्रद्रोह के आरोप में पाँच साल के लिए सपरिवार सलाखों के पीछे डाल दिया गया मगर मीडिया आँख मूंद कर बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के वैमनष्यता का बीज रोपता रहा, पॉँच साल बाद जब आनद सिंह जीत के साथ वापस आए तो जुड़ीशियरी के ख़िलाफ़ जंगे जेहाद यानी कि इन्साफ कि लड़ाई छेड़ दी मगर यहाँ भी जुड़ीशियरी की गंदगी ने इन्साफ के सारे रास्ते बंद कर दिये और इन्साफ के मन्दिर यानी की उच्चतम न्यायालय में जस्टिस साहब को प्रवेश ही नही करने दिया गया। इन्साफ को रोकने वाले न्यायाधीश बाकायदा बाद में अपने इस बहादुरी के लिए सरकार से सम्मानित हुए.

आज भी जस्टिस आनंद सिंह का परिवार इन्साफ के लिए, कानून के लिए, न्याय के लिए लड़ रहा है भले ही फांके की हालत क्योँ हो मगर लड़ाई जारी है, हमारे देश के अंधे गूंगे और बहरे पत्रकारिता से कोसो दूर क्यूँकी पत्रकारिता के दूकान के छोकरे अभी भी लाला जी के कहे अनुसार बम के धमाके और हिंदू मुसलमान के नाम के वाट जो तौल रहे हैं

गुमनामी मगर आशा की लौ और उम्मीद की किरण के साथ जस्टिस आनंद सिंह सपरिवार न्याय की लड़ाई को आज भी जारी रखे हुए हैं।



3 comments:

  1. बहुत सही प्रश्न उठाया है आपने। हमारे देश में यही हाल है। जो काम पत्रकारों को करना चाहिए वो आप कर रहे हैं। आभार।

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  2. कानूनविद जस्टिस आनन्द को जब न्याय पाने के लिये इतनी बडी कीमत चुकानी पडी और सपरिवार जिस मानसिक संताप को भोगना पडा तो सहज ही आम आदमी की स्थिति की कल्पना करी जा सकती है।

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  3. आपको लोहडी और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ....

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